tag:blogger.com,1999:blog-5422074341788165040.post4119135416673949313..comments2023-06-28T08:49:58.761-07:00Comments on मेरी चयनिका: पश्चिम को दोष न दें, आत्म-मूल्यांकन करें जयदीप शेखरhttp://www.blogger.com/profile/18291254457561315778noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-5422074341788165040.post-79392706807754417032013-02-02T09:32:59.958-08:002013-02-02T09:32:59.958-08:00मुझे तो लगता है कि एक सोची समझी चाल है इस तरह के ब...मुझे तो लगता है कि एक सोची समझी चाल है इस तरह के बयानों को देकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की. ये नेता टाईप के लोग बुद्धिजीवी टाईप के लोगों की मानसिकता खूब समझते हैं. भारत एक चिंतन प्रधान देश रहा है (अब भी है) यहां चिंतन को इतना महत्व दिया गया कि आज तक शारीरिक श्रम से जीविका चलाने वालों को कमतर माना जाता है. चिंतन के साथ यहां शास्त्रार्थ की भी परम्परा रही है. जब चिंतन इतना अधिक हो कि मारे चिंतन के अपच होने लगे तो उसे किसी न किसी बहाने वमन करना ही है. इसी मानसिकता को अच्छी तरह समझते होने के कारण य्ह नेता टाईप के लोग ऐसा बयान दे देते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग उबल पड़े और मूल मुद्दा छोड़ कर इस पर ताल ठोक कर उतर आये कि आप ग़लत हैं. एक बुद्धिजीवी यह कहे कि नेता जी गलत कह रहे हैं और और उन्हे ग़लत सिद्ध करने को पुरातन साक्ष्य भी हैं. वह छांट-छांट कर ग्रन्थों से केवल वही साक्ष्य देता है जो उसकी बात का समर्थन करे. अब एक बुद्धिजीवी खेमा मार विद्वता झाड़े जा रहा है तो दूसरा बुद्धिजीवी कैसे चूक जाय. अब मुद्दा गया भाड़ मे, दूसरा खेमा खम ठोक कर उतर पड़ता है कि कुछ अंशों तक तो आप सही कह रहे है किन्तु यह अर्धसत्य है, पूर्ण नही. हमारे शास्त्र तो भरे पड़े हैं परस्पर विरोधी अवधारणाओं से. यहां तो विपरीत मत को सदा ही समान दिया गया है कि शास्त्रार्थ चलता रहे. यहां तो शैव हैं तो वैष्णव भी, साकार मत के हैं तो निराकार मत के भी, द्वैत है तो अद्वैत भी, चार्वाक् और नास्तिकता को भी पूर्ण सम्मान से स्वीकारा गया है… तो भईया ! दूसरा खम ठोक कर कहता है कि देखिये अलां शास्त्र तो यह कहता है तो फलां शास्त्र वह. एक शोशा उछाल दे कि यह सब पाश्चात्य संस्कृति के कारण है तो बलात्कार पीड़ित की व्यथा, बलात्कारी को दण्ड और आगे इस पर कैसे रोक लगे, लोगों की मानसिकता कैसे बदले… आदि, इत्यादि को दरकिनार करके शास्त्रों से उदाहरण देकर सिद्ध करे कि हमे बलात्कार की प्रेरणा के लिये पाश्चात्य संस्कृति की ओर देखने की आवश्यकता नही… हमारे महापूर्वज ब्रह्मा, इन्द्र आदि बलात्कार कर चुके हैं तो रावण, जमग्दनि, परशुराम, गुरुपत्निगामी चन्द्र आदि हैं, बलात्कार और नारी को भोग्या, हीन समझने के बीज तो वैदिक काल से हैं – क्या ज़रूरत पश्चिम से प्रेरणा लेने की. अब दूसरा खेमा कहे कि नही हमारे यहां तो प्रारम्भ से ही मातृ सत्ता रही है. नारी को सम्मान तो हम सदा से देते रहे हैं. वह तो मुसलमानों व अंग्रेजों ने यह सब फैलाया. यहां तो तीसरा खेमा नही कूदा मगर मुसलमानों के झण्डाबरदार कूद सकते हैं कि हम नही ऐसे हैं…. देख लो, कुरान कि अलां सूरा की फलां आयत मे नारी को कितना सम्मान देने की बात कही गई है. अब शासन- प्रशासन दूर खड़ा हँस रहा कि देखा ! कैसा बेवकूफ बनाया ! अब यह इसी पर शास्त्रार्थ करते रहेंगे कि यह है किस संस्कृति के कारण ! भई, बलात्कार पीड़ित को न्याय, उसका और अपमान न करना, रोकथाम के उपाय आदि तो फिर कर लेंगे… पहले यह तय हो कि यह किस संस्कृति के कारण है.<br />इस साईट पर , तमाम और साईट्स पर व देश भर मे मुद्दों को इसी तरह भटकाया जा रहा है. भाई यह पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हो या प्राचीन भारतीय संस्कृति से या मुसलमानों के कारण या कपड़ों, मोबाईल्स, मॉल्स, जीन्स आदि के कारण… किसी भी कारण से हो--- कारण तय हो जाने से कोई खेमा शास्त्रार्थ मे तो विजयी हो जायेगा किन्तु उससे क्या वह मानसिकता बदलेगी जो नारी को हीन, भोग्या और मानव नही, वस्तु समझती है ? ठीक है, यह इसके असर मे हो रहा हो या उसके--- हम क्या कर रहे हैं ---- केवल शास्त्रार्थ, बुद्धि विलास. लेख लिखने वाला यही कर रहा है, उसे प्रस्तुत करने वाला भी, टिप्पणीकार भी, प्रतिटिप्पणी करने वाला भी और मै भी ! <br />साधों ! किसके असर मे हुआ, यह सिद्ध करने के बजाय अपने आस-पास के लोगों की मानसिकता बदलो, अपने ही साथ काम करने वाली या पड़ोस मे रहने वाली लड़की के बारे मे चटखारे लेकर बात न करो और न करने दो. शास्त्रार्थ के मुकाबले है तो यह बहुत छोटा काम किन्तु कारगर शास्त्रार्थ नही, ऐसे ही छोटे-छोटे कदम होंगे.<br />राज नारायण <br />rajhttps://www.blogger.com/profile/01380258193028457659noreply@blogger.com