शनिवार, 27 अप्रैल 2013

घिर गया है देश!

घिर गया है देश!

- बाजार, समुद्र, आकाश और धरती के मोरचों पर
।। हरिवंश ।।
भारत संकट में है. यह चीनी संकट है. भारत की सभी मौजूदा बाहरी-आंतरिक चुनौतियों के बीच सबसे बड़ी. चीन ने भारत पर चौतरफा प्रहार किया है. बाजार (मार्केट), समुद्र (वाटर), आकाश (स्पेस) और धरती के मोरचों पर. इन तथ्यों पर नजर डालें,
* आरंभिक खबर के अनुसार 15 अप्रैल, 2013 को तकरीबन 50 चीनी सैनिकों का एक प्लाटून लद्दाख की भारतीय सीमा में 10 किलोमीटर अंदर घुस कर टेंट गाड़ चुका है. साथ में कुत्ते भी हैं. हद तो तब हो गयी, जब भारत सरकार ने 27 अप्रैल को संसद को बताया कि चीनी सैनिक 10 किलोमीटर नहीं, 20 किलोमीटर अंदर (भारतीय सीमा) घुस आये हैं. पूर्वी लद्दाख के दौलतबेग ओल्डी (डीओबी) सेक्टर में. यह अपमान और हम (भारत) लगभग असहाय हैं. 23 अप्रैल को दोनों पक्षों के बीच वार्ता भी हुई. पर चीन पीछे नहीं हटा. लद्दाख क्षेत्र में चीन ने 1962 के बाद पहली बार तंबू गाड़े हैं. 2013 में चीन के प्रधानमंत्री कियांग के भारत दौरे से ठीक महीने पहले लद्दाख के दौलतबेग ओल्डी में चीनियों ने तंबू गाड़े हैं.
 * एक तो घुसपैठ ऊपर से चीन का यह आक्रामक रवैया. 21.04.13 को भारतीय सीमा में घुस कर चीन के हेलीकॉप्टरों ने खाने के केन, सिगरेट पैकेट और अपनी भाषा में लिखे कागजात गिराये. दरअसल, यह जगह अक्साई चीन की तरह महत्वपूर्ण है. रणनीतिक तौर पर अक्साई चीन को भी चीन ने हथिया रखा है. पिछले वर्ष सितंबर- 2012 में चीनी हेलीकॉप्टर चूमर के भारतीय सीमा में घुसे. उतरे. भारतीय सेना के पुराने बंकर और टेंट वहां थे. उन्हें नष्ट कर दिया.
* 23 अप्रैल, 2013 की दूसरी बड़ी खबर है. चीन की सेना ने भारतीय सीमा में स्थित पेगांग झील के हिस्से में भी घुसपैठ की (स्रोत : हेडलाइंस टुडे)
* चीनी जहाज 21 अप्रैल को पश्चिमी हिमालय के भारतीय इलाके में उड़ते देखे गये.
* जून, 2011 में उत्तराखंड के चूमर में चीन के हेलीकॉप्टरों ने भारतीय सीमा का उल्लंघन किया. हिमालय की ग्या पहाड़ियों में चीनी सैनिकों ने चीनी भाषा में (लाल रंगों में) नारे लिख कर अपने इरादे स्पष्ट किये.
* पिछले पांच साल में न सिर्फ लेह-लद्दाख, बल्कि उत्तर-पूर्व इलाके में भी चीन की घुसपैठ लगातार बढ़ी है.
* 1987 में अरुणाचल प्रदेश में भी तवांग के उत्तरी इलाके (सम दोरांग चू) पर चीन ने कब्जा कर लिया था. यह क्षेत्र अभी उसके कब्जे में ही है.
* इसके पहले भी चीन ने चुपचाप सीमा के अनेक क्षेत्रों में इसी तरह घुसपैठ की और उन्हें अपना बना लिया. मसलन, अक्साई चीन (1950), पारसेल आइसलैंड (1974), जानसन रीफ (1988), मिसचीफ रीफ (1995) और स्कारब्रो सोल (2012).
* भारतीय सेना के जम्मू-कश्मीर में तैनात लेफ्टिनेंट जनरल वीएस जसवाल (भारत के उत्तरी कमांड के प्रमुख) को चीन ने वर्ष 2010 में वीसा देने से मना कर दिया. तब चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत आ रहे थे. चीन ने तर्क दिया कि चूंकि जनरल वीएस जसवाल कश्मीर में तैनात हैं, यह पाकिस्तान से विवादित इलाका है. चीन को पाकिस्तान की भावनाओं का ध्यान है, इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं.
* इसी तरह वर्ष 2012 में चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ, भारत आनेवाले थे. उनकी यात्रा के ठीक पहले चीन ने अरुणाचल प्रदेश में तैनात भारतीय वायुसेना के ग्रुप कैप्टन को वीसा देने से मना कर दिया.


* 2006 में चीनी राजदूत ने भारत में दावा किया था कि अरुणाचल प्रदेश की 90,000 वर्ग किलोमीटर जमीन, उसका इलाका है. इसे पहली बार चीन ने दक्षिण तिब्बत कहा.

* अब चीन मनमाने ढंग से कहता है कि 2,000 किलोमीटर क्षेत्र में भारत से सीमा विवाद है. यह एकतरफा बयान है. इसमें सिक्किम वगैरह के इलाके हैं.
* पश्चिमी क्षेत्र में चीन ने एक और कमाल किया. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन ने अपनी सेना तैनात की है. 2011 में थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने बार-बार कहा कि साढ़े तीन से चार हजार चीनी सैनिक इस इलाके में हैं. पर, भारतीय नेता वीके सिंह को ही हटाने में लगे रहे. हालांकि, वीके सिंह की यह बात सच थी. इस तरह चीन ने कश्मीर से लेकर अरुणाचल के बीच जगह-जगह भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर ली है. सीमावर्ती क्षेत्र पर अति मजबूत और चौड़ी सड़कें बना ली है. चीनी अधिकृत सीमा में कई जगह हवाई अड्डे बना लिये हैं.
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- अब समुद्री क्षेत्र पर एक नजर
* 01.02.13 को पाकिस्तान ने ग्वादर पोर्ट (बंदरगाह) को बनाने-विकसित करने का काम चीन को सौंपा. पाकिस्तान की मंशा के अनुसार चीन यहां नौसैनिक अड्डा भी बनायेगा. पाकिस्तान ने इस काम के लिए तय कुल 1331 करोड़ रुपये के 75 फीसदी का भुगतान भी कर दिया है.
* मालदीव के मराओं में चीन का अड्डा है. 1991 में मालदीव ने इसे चीन को लीज पर दे दिया था.
* श्रीलंका के हब्बन टोटा पोर्ट पर चीन मौजूद है. डीपवाटर पोर्ट बनाने के काम को लेकर. भारत को घेरने के हिसाब से यह बंदरगाह अत्यंत महत्वपूर्ण है. भारत के मालवाहक जहाज और नौसेना के जहाज इधर से गुजरते हैं.
* बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह में भी चीन है. उसने इसके लिए बांग्लादेश को भारी मदद दी है. चीनी नौसेना के लड़ाकू जहाज यहां आते हैं.
* म्यांमार (वर्मा) के सितवे बंदरगाह को, भारत की एक निजी कंपनी ने 650

करोड़ में विकसित किया, पर यहां चीन काबिज है.

* नेपाल में चीन आज भारत से अधिक महत्वपूर्ण और ताकतवर है. इस तरह समुद्री क्षेत्र में भारत को पूरी तरह से चीन घेर चुका है. हाल के ब्रिक्स देशों की बैठक (मार्च, 2013 अंत) में भारत के प्रधानमंत्री, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिले. उन्होंने कहा कि नदियों पर बना रहे अपने बांधों की नीति और पारदर्शी बनायें. पर भारत के इस अनुरोध को चीन ने मजाक बना दिया. चीन के 12 पड़ोसी देश हैं. चीन से इन देशों का नदी संबंध है. यानी नदियां एक-दूसरे देश में बहतीं हैं. भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ पानी बंटवारे की संधि की है. पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों के साथ. यह अंतरराष्ट्रीय जल नियमों के तहत है. चीन इस अंतरराष्ट्रीय जल कानून को ही खारिज करता है. उसने अपने किसी पड़ोसी के साथ जल बंटवारे की संधि या समझौता भी नहीं किया है.
अभी हाल में चीन ने तीन नदियों साल्विन, द मेकोंग और ब्रह्मपुत्र पर 11 अतिरिक्त बड़े बांध बनाने की घोषणा की है. किसी की परवाह के बगैर. चीन, ब्रह्मपुत्र पर कई बड़े बांध पहले ही बना चुका है. इसने सिंधु और सतलज पर भी बड़े बांध बनाये हैं. अब अरुण (कोशी) पर भी बांध बनाने की योजना बना चुका है. कोशी, बिहार से ही गंगा के प्रवाह को ताकत देती है. इस कोशी पर भी चीन बांध बना रहा है. अगर यह बांध बन गया, तो गंगा बिहार में तो सूखेगी ही, बांग्लादेश को भी पानी नहीं मिलेगा. यह भी याद रखिए कि वर्ष 2000 से 2005 के बीच हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में बाढ़ ने जो तबाही मचायी, वह चीन के कारण हुआ. भारी बरसात से चीन के बांध और बराज उफनने लगे, तो चीन ने उन्हें खोल दिया.
हद तो यह है कि पाकिस्तान को भारत ने जल बंटवारे संधि की सर्वश्रेष्ठ सौगात दी है. इसके बाद भी वह, भारत को अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में खींच कर ले गया है. भारत असहाय होकर खामोश है. उधर, चीन एकतरफा बड़े-बड़े बांध बना रहा है और भारत को उपदेश देता है कि वह पाकिस्तान को पानी नहीं दे रहा है. देहात की कहावत है कि जबरा मारे भी, रोने भी न दे.
- अंदरूनी मसलों में फंसा नेतृत्व
आज यह स्थापित सच है कि चीन, भारत से बहुत आगे निकल गया है. आज वह हवाई मार्ग और समुद्री मार्ग से 70 हजार चीनी सैनिकों को एक पहल पर एक जगह जुटा सकता है. पर, भारत सिर्फ समुद्री रास्ते महज तीन हजार सैनिकों को ही एक पहल में जुटा सकता है. यह इस तरह 70 हजार बनाम तीन हजार का मुकाबला हो गया है.

फरवरी में ही चीन ने अपने वाई-20 वायुयान का परीक्षण किया. चीन में ही निर्मित 66 टन भार ढोनेवाला. इस तरह चीन 30 हजार सैनिकों को हवाई बेड़े से ढो सकता है. इस तरह एशिया में आज चीन अकेले गेमचेंजर की भूमिका में है. चीन 12 बड़े जलपोत बना रहा है. 20 हजार टन से अधिक भार के, जो सेना के तीन डिवीजनों यानी 30 हजार सैनिकों को ढो सकते हैं. चीन ने भारतीय समुद्री इलाके में दो लैंडिंग प्लेटफॉर्म डॉक्स लगाये हैं, जिनमें 10 हजार सैनिक, टैंक और लड़ाई के हेलीकॉप्टर रह सकते हैं.
इन सब के मुकाबले भारत के पास महज एक जहाज है. आइएनएस जलश्व. यह जहाज महज तीन हजार सैनिकों को ढो सकता है. यह भी अमेरिका से खरीदा गया है. चीन के पास आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है. भारत चौथे स्थान पर है. भारत की अर्थव्यवस्था चीन से काफी पीछे है. पर भारत की आबादी एक-डेढ़ दशकों में चीन से अधिक हो जायेगी. चीन ने पाकिस्तान समेत भारत के पड़ोसियों को साम, दाम, दंड, भेद से अपने पक्ष में कर लिया है.
अमेरिका के रक्षा मुख्यालय पेंटागन की रिपोर्ट में चीन को तेजी से बढ़ती सैनिक ताकत स्वीकार किया गया है. चीन का रक्षा बजट, भारत के रक्षा बजट से कई गुना अधिक है. अनुमान है कि आनेवाले कुछ वर्षों तक चीन अपने रक्षा बजट में हर साल 20 से 25 फीसदी तक बढ़ोतरी करेगा.
2009 में ही पेंटागन ने भारत को सतर्क किया था कि चीन, भारतीय सीमा के करीब अत्याधुनिक सीएसएस-5 मिसाइलें बड़ी संख्या में तैनात करने की तैयारी कर चुका है. यह भी कहा गया कि भारतीय सीमा पर अपनी वायुसेना को बहुत कम समय में वह सक्रिय कर सकता है. चीन की सत्ताधारी पार्टी की एक पत्रिका है, टकीसीज. हाल के दिनों में इसमें कुछ लेख छपे हैं. इसमें भारत के साथ सीमा विवाद को सलटाने और शांति स्थापित करने के लिए युद्ध की बात कही गयी है. पत्रिका का विचार है कि शांति सिर्फ युद्ध के रास्ते ही आ सकती है. रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन थंडर ड्रैगन-2014 ऑपरेशन की योजना पर काम कर रहा है. इसके तहत वह पाकिस्तान से मिल कर भारत पर दोतरफा हमला करेगा.
यहां मकसद चीन की ताकत का ब्योरा देना नहीं है. ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो चीन के ताकतवर होने, आक्रामक होने और भारत के निरंतर अपमानित होने से जुड़े हैं. मूल सवाल यह है कि आज इस आक्रामक पड़ोसी व नयी महाशक्ति के मुकाबले भारत कहां खड़ा है? भारत को क्या यह एहसास भी है कि वह चीन के शिकंजे में है. लगता नहीं है. समाजवादी नेता राजनारायण जी अक्सर अपनी पार्टी के आक्रामक नेताओं को संकेत कर कहते थे कि लंगड़ी बिलार, घर में शिकार. हम घर में ही लड़नेवाले कमजोर लोग हैं.
हमारे पास देश के लिए कोई सपना नहीं है. जो भी राजनीतिक सपना है, वह महज गद्दी पाने तक सीमित है. गद्दी पाकर देश को महान या ताकतवर बनाने का अरमान नहीं है. यह तो कथित राष्ट्रीय दलों का हाल है. अब तो छत्रप बहादुरों का भी दौर है. हर सूबे में क्षेत्रीय दल उभर आये हैं. जिनका आचरण अपने राज्य को ही देश मानने जैसा है. हम वह आचरण और गंभीरता खो चुके हैं, जो किसी कौम या देश को महान बनाता है.
याद करिए, बमुश्किल साल भर पहले की घटना है. तत्कालीन भारतीय सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को एक गोपनीय पत्र लिखा. उस पत्र में उन्होंने भारत की सेना के पास गोला-बारूद, हथियार न होने की स्थिति की चर्चा की. वह पत्र लीक हो गया. प्रधानमंत्री कार्यालय ने जांच करायी. आइबी से. खबर की पुष्टि हुई कि यह पत्र सेनाध्यक्ष के यहां से लीक नहीं हुआ है. पर ईमानदार सेनाध्यक्ष को बरखास्त करने की मांग संसद में गूंजने लगी.
सभी राजनीतिक दल बेचैन हो गये. पर, किसी ने भी (संसद या भारतीय राजनीतिक दल) इस बात पर चर्चा नहीं की कि भारत के पास लड़ने के लिए पर्याप्त हथियार क्यों नहीं है? इस स्थिति के लिए जवाबदेह कौन है? पूर्व सेनाध्यक्ष ने बार-बार सवाल उठाया कि आज भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है. तीन-चार दशक पहले ऐसी ही स्थिति में चीन भी था. आज चीन स्वनिर्मित हथियार पर निर्भर है. निर्यातक भी बन गया है.
भारत क्यों नहीं हथियार आयातक से हथियार उत्पादक देश बन गया? क्या भारत में हथियारों की दलाली करनेवाली लॉबी, भारत सरकार से भी ताकतवर है? क्यों भारतीय सेना, चीन के मुकाबले अत्याधुनिक हथियारों से लैस नहीं है? दरअसल, सवाल तो यह उठना चाहिए कि भारत क्यों कमजोर मुल्क रह गया और चीन ने कैसे दुनिया में नया इतिहास रच दिया? चीन की हाल की एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे चीनी नेतृत्व के मानस को समझने में मदद मिलती है. पहले यह खबर चीन सरकार द्वारा संचालित शिन्हुआ न्यूज एजेंसी ने जारी की. फिर बाद में खंडन भी किया. यह चीन की पुरानी आदत है. पर, खबर पूरी दुनिया में फैल गयी.
खबर आयी कि 18 अप्रैल, 2013 को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक अज्ञात यात्री बन कर एक टैक्सी में चढ़े. टैक्सी ड्राइवर 46 वर्षीय गुओलिक्सिन थे. दोनों के बीच बात शुरू हुई. दोनों ने बीजिंग में छायी धुंध-कोहरा (पर्यावरण संकट से जुड़ी) की चर्चा की. राष्ट्रपति ने कहा कि पर्यावरण दूषित करना आसान है. पर, इसे ठीक करना मुश्किल है. एक मिनट लगता है, प्रदूषित करने में और 10 मिनट लगते हैं, इसे ठीक करने में. तब तक टैक्सी रेड लाइट चौराहे पर पहुंच गयी. ड्राइवर ने पलट कर कहा, आपको अब तक किसी ने बताया है कि नहीं कि आपका चेहरा या आप पार्टी सचिव शी जिनपिंग से मिलते हैं. मस्कुराते हुए शी जिनपिंग ने कहा कि आप पहले ड्राइवर हो, जिसने मुझे पहचाना. ड्राइवर बोला, आप आम लोगों से बहुत नजदीक हैं.
हम जनता के लिए यह वरदान है कि आप हमारे बीच हैं. इसके बाद राष्ट्रपति बीजिंग के डायोतायी होटल पहुंचे और 30 युआन का भुगतान किया. ड्राइवर ने कहा कि मैं उनकी आवाज सुन कर स्तब्ध था. तीन मिनट तक तो मेरे बदन और चेहरे पर पसीना बहता रहा. मैं ढंग से बोल नहीं पा रहा था. दरअसल, यह प्रयास चीन के सर्वसत्तावादी नेतृत्व का जनता के बीच जाने का नया अभियान है.
हमारी व्यवस्था में भी बहुत पहले चाणक्य कह गये कि राजा वेष बदल कर प्रजा के बीच जाये. व्यवस्था की खामी समझे. पर हमने लोकतंत्र को राजतंत्र बना लिया. अंतत: राजनीति ही जज्बा पैदा करती है. चाहे वह देश बनाने का सवाल हो या देश बचाने का सवाल? आज भारत की राजनीति, विचारहीन हो गयी है. सपनाविहीन है. चीन ने इस कदर भारत को घेर रखा है, पर भारत में कहीं इस पर बहस नहीं. बेचैनी नहीं.
डॉ लोहिया अकेले नेता था, जिन्होंने चीन के इस रूप को पहचाना. इस विषय पर काफी लिखा और कहा. इसके पहले 1950 में मृत्युशय्या पर पड़े सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को पत्र लिख कर आगाह किया कि चीन, तिब्बत हड़पेगा. पंडित जी तब हिंदी-चीनी भाई-भाई के कल्पना लोक में डूबे थे. कई बार लगता है, पंडित जी महान थे, पर चीन के मामले में वह अपनी छवि को दुनिया में देश से ऊपर देखते थे, इसलिए उन्हें धोखा हुआ. लेकिन, उसके बाद से आज तक भारत की क्या विदेश नीति रही है? क्या हमने सीखा? हर पड़ोसी हमसे नाराज व अलग है.
चीन ने अचानक भारत में प्रवेश नहीं किया है. इसके पहले उसने मुल्क की आर्थिक स्थिति मजबूत की. देश को समृद्ध बनाया. सैनिक ताकत को समृद्ध किया. शोध, विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत काम किये. वह जानता है कि दुनिया ताकत के आगे झुकती है. इसलिए आज भारत के कमजोर पड़ोसी भी भारत को आंख दिखा रहे हैं और चीन के साथ हैं. भारत सिर्फ डिप्लोमेसी (राजनायिक) से चीनी सेना से निपटना चाहता है. यह संभव नहीं है.
चीन अब एक महाशक्ति है. वह अपना दंभ दिखा रहा है. सवाल यह है कि भारत में आज कहीं देश का कोई सपना जीवित है? चीन के पास एक सपना था. दुनिया की महाशक्ति बनने का. वह बना. 1978 में उसने नये सिरे से दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने का संकल्प लिया. देंग सियाओ पेंग के नेतृत्व में. आज भारत के क्षेत्रीय दलों के पास क्या सपने हैं? महज अपने राज्य की गद्दी पाना और भ्रष्टाचार करना. भ्रष्टाचार में शामिल सभी दलों के नेता देश को अंदर से खोखला कर रहे हैं. भारत के ऐसे नेता, भारत के लिए चीन से भी बड़ी चुनौती हैं. चीन ने एक-एक कर सुनियोजित ढंग से अपना कायाकल्प किया. मसलन, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों को लें. क्योंकि अंतत: शिक्षण संस्थाएं ही किसी देश को इस नालेज एरा (ज्ञानयुग) में दुनिया में सबसे अधिक ताकतवर और मजबूत बनाती हैं.
दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सौ संस्थाओं में (संदर्भ- www.usnews.com/education/worlds-best-universities-rankings) में चीन की तीन संस्थाएं है. भारत की शून्य. ब्रिटेन की 18. अमेरिका की 31. जापान की पांच. सिंगापुर की दो. दक्षिण कोरिया से तीन. इसी तरह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ 200 संस्थाओं में चीन से सात संस्थाएं हैं. भारत से शून्य, जापान की नौ, सिंगापुर की दो. दक्षिण कोरिया से छह, ब्रिटेन से 30 और अमेरिका से 54. विश्व की साढ़े तीन सौ सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में चीन से 18 संस्थाएं हैं. भारत की पांच (पांचों आइआइटी), जापान की 14, दक्षिण कोरिया की नौ, ब्रिटेन की 41, अमेरिका की 76. यानी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ साढ़े तीन सौ संस्थाओं में चीन की 18 संस्थाएं हैं और भारत के सिर्फ पांच (इनका रैंकिंग भी 200 से 349 के बीच है और चीन की संस्थाओं की रैंकिग 44 से 168 के बीच).
सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी व शोध केंद्र चीन में काम कर रहे हैं. भारत को किसने रोका है कि वह अपने शिक्षा क्षेत्र का कायाकल्प न करे? सपनाविहीन नेताओं ने, उद्देश्यविहीन सरकारों ने, स्वार्थी और नितांत निरक्षर राजनीति ने या अप्रभावी विपक्ष ने? आज देश बनाने का सपना खत्म है. पैसा बनाने, भोग करने और इंद्रिय सुख पाने का सपना देश के शासकों में सबसे प्रबल है.

टाइम्स हायर एजुकेशन मैगजीन ने एक सर्वे किया. 2013 में. दुनिया की 100 विश्व प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की सूची बनायी. इस सूची में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को पहला स्थान मिला. ब्राजील, रूस और चीन भी इस सूची में हैं, पर भारत की एक भी संस्था नहीं है. आज भी अगर अमेरिका या यूरोप का दुनिया में वर्चस्व है, तो उनकी शिक्षण संस्थाओं के कारण. इस 100 की सूची में अमेरिका के 43 विश्वविद्यालय हैं. टॉप 10 में अमेरिका की सात संस्थाएं हैं, ब्रिटेन से दो और जापान की एक है.
यही हाल शोध पत्रों के क्षेत्र में है. मशहूर अखबार गाजिर्यन में इसी माह (अप्रैल-13) एक खबर छपी. चायना पोयाज्ड टू ओवरहाल यूएस एज बीगेस्ट पब्लिसर्स ऑफ साइंटिफिक पेपर्स यानी चीन वैज्ञानिक शोध पत्रों के प्रकाशक देश के रूप में अमेरिका को मात देगा या पीछे छोड़ेगा. यह रिपोर्ट आधारित है, दुनिया की मशहूर रॉयल सोसाइटी के अध्ययन पर. चीन ने ब्रिटेन को वैज्ञानिक शोध पत्रों के लेखन में पीछे छोड़ दिया है.
आज ब्रिटेन तीसरे स्थान पर है. रॉयल सोसाइटी की इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2013 तक चीन दुनिया का सबसे बड़ा वैज्ञानिक शोध पत्रों का प्रकाशक देश बन सकता है. अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए. रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि दुनिया के परंपरागत सुपरपावर यानी महाशक्ति देशों को अब उभरते देशों की वैज्ञानिक शोध संस्थाओं से गंभीर चुनौती मिल रही है. ईरान, ट्यूनिशिया और तुर्की भी आगे निकल रहे हैं. द रॉयल सोसाइटी की इस रिपोर्ट के अनुसार, अंगरेजी में दुनिया के वैज्ञानिक शोध पत्र तैयार करने में अब चीन दूसरे नंबर पर है. जर्मनी, जापान, फ्रांस और कनाडा काफी पीछे छूट गये हैं.
आपने (हम भारतीय नागरिक) पिछले 30-40 वर्षो में संसद में, सरकार से, विपक्ष से या किसी राजनीतिक फोरम से या बौद्धिकों की बहस में इन बुनियादी सवालों पर चिंता या चर्चा सुनी है? क्यों हमारे शिक्षण संस्थान लगातार अराजक होते गये. शिक्षकों को महज वेतन बढ़ने की चिंता रही. सरकार को वोट बैंक बनाने की. पर सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को तराश कर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्था बना लें, यह सपना ही इस मुल्क में मर गया है.
जहां हजारों साल पहले नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसे संस्थान होते थे. उसी मुल्क में आज हम वैज्ञानिक शोध पत्रों के लेखने में अपनी पहचान नहीं बना सके हैं. जो अंगरेज दे गये थे, उन संस्थाओं को भी हमने मारने-खत्म करने का काम किया. एक सत्येंद्र बोस, एक सी चंद्रशेखर, एक सीवी रमण हम 60 वर्षो में नहीं पैदा कर सके? दरअसल, हम जीतेजी मरे हुए कौम में तब्दील होते गये हैं. चीन द्वारा भारतीय सीमा में अतिक्रमण से भी कहीं हमारा स्वाभिमान जगता या संकल्प पैदा होता, वह स्थिति भी नहीं है.
स्पष्ट है कि जो तकनीक में आगे रहता है, वही दुनिया पर राज करता है. पहले ब्रिटेन था, इसलिए उसके राज में सूर्यास्त नहीं होता था. बाद में उसकी जगह अमेरिका ने ली. लगभग आधी सदी तक अमेरिका का वर्चस्व रहा. अब चीन उस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है.
साफ है, दुनिया जिस चुनौती से जूझ रही है, उससे जुड़े अगर नये शोध होते हैं और उसका अगुआ चीन होता है, तो दुनिया में चीन का ही वर्चस्व होगा. भारत इस मामले में बहुत पीछे है. चीन ने चूंकि सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान बनाने का अभियान चला रखा है, कई दशकों से, इसलिए वह विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग वगैरह में नये शोध और नयी तकनीक का अगुआ बन रहा है. चीन नैनो टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग के महत्वपूर्ण शोधों में लगा है. रॉयल सोसाइटी अध्ययन के प्रोफेसर और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ऊर्जा शोध निदेशक प्रो क्रिस लेलविन स्मिथ ने कहा कि चीन ने नैनो टेक्नोलॉजी में अपार पूंजी लगा दी है.
दुनिया की सर्वश्रेष्ठ लैबोरेटरीज (प्रयोगशालाएं) बनायी हैं. दुनिया के कोने-कोने से सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं वह इकट्ठा कर रहा है. इसका अर्थ और परिणाम साफ है. दुनिया के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों की दृष्टि में चीन, नैनो टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग में दुनिया की रहनुमाई करेगा. इसलिए दुनिया का भविष्य वह बनायेगा. प्रभावित करेगा. नये खोज, आविष्कारों में. ब्राजील में खेती और कृषि आविष्कारों पर उल्लेखनीय काम हो रहे हैं.
अंतत: भारत इन क्षेत्रों में कहां है? यह सवाल क्या भारत की राजनीति या संसद या शिक्षा क्षेत्र में कहीं है? भारत की राजनीति के अहम मुद्दों में आज कल ऐसे सवाल उठते हैं? फिर भी हम भारतीय ख्वाब में जी रहे हैं. भारत को हम दुनिया की उभरती महाशक्ति मानते हैं. चीन के इंफ्रास्ट्रक्चर के सामने भारत कहीं ठहरता ही नहीं. अपनी ही अंदरूनी चुनौतियों से जूझता भारत.
क्या हम महज जनसंख्या या आबादी बढ़ानेवाला देश होकर रह गये हैं या अपनी नियति को लिखने के लिए भी हम तैयार हैं? जाति, धर्म, सत्ता, अगंभीरता ये सब हमारे राष्ट्रीय चरित्र के चिह्न् हैं. कुछ बड़े शहरों में गगनचुंबी इमारतें, पांच सितारा होटल और आलीशान बंगलों में देश की सत्ता सिमट गयी है. सरकारी योजनाओं की दलाली में अरबों-खरबों के सौदे हो रहे हैं. नौकरशाही में अकाउंटीबिलीटी नहीं है. चीन ने पिछले 40-50 वर्षो में अपने राजनीति नेतृत्व का कायाकल्प किया है. दुनिया के विश्वविख्यात संस्थाओं में पढ़े-लिखे दक्ष लोग सरकार चलाते हैं.
म्यूनिशिपल कॉरपोरेशनों का नेतृत्व, हार्वर्ड या अन्य संस्थाओं से पढ़-लिख कर आये लोग काम कर रहे हैं. हमारे यहां राजनीति में किस तरह की क्वालिटी है? जो समाज के तलछट हैं, कुछ नहीं कर सके, तिकड़म, षड्यंत्र, रंगदारी और अपराध में माहिर हैं, वे हमारा भविष्य तय कर रहे हैं. यह सही है कि भारतीय नेतृत्व में भी अनेक प्रतिभाशाली लोग हैं, पर उन्हें प्रतिगामी ताकतें या वोट बैंक खुल कर काम नहीं करने देती. यह है, चीन और भारत के नेतृत्व का फर्क. चीन में प्रतिभाशाली लोगों को पार्टी में प्रवेश मिलता है. उन्हें प्रशिक्षित कर ऊपर तक पहुंचाया जाता है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में पर्दे के पीछे कुछेक लोग हैं, जो पूरी सत्ता पर निगाह रखते हैं.
दरअसल चीन के असल शासक परदे के पीछे हैं. वे अनसंग हीरोज (अंजाने नायक) हैं. ऐसे लोग चुपचाप चीन बनाने का सपना लिये, कठोर कर्म करते, दुनिया से गुमनाम चले जाते हैं. वे चीन की राजनीति में एक -एक व्यक्ति के कामकाज, चरित्र और विजन पर नजर रखते हैं.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय में गुमनाम बना यह शीर्ष नेतृत्व पार्टी के एक-एक काडर के काम, चरित्र और भूमिका को तराशता है. उसे भटकाव से रोकता है. फिर इनमें से छांट कर उन्हें प्रमोट कर, उनके हुनर को तराश कर शीर्ष पर पहुंचाता है. हर स्तर पर पार्टी ऐसे ही काम करती है. भारत में आज राजनीति में गये, दूसरे ही पल एमपी-एमएलए बने, फिर मंत्री वगैरह. बिना अनुभव, योग्यता या लियाकत हासिल किये हुए भारतीय नेता शीर्ष तक पहुंचते हैं. चीन में ठीक इसके उलट है. योग्य, अनुभवी, परखे हुए, दृष्टि संपन्न लोगों को आगे पहुंचाने का काम होता है. चीन की इस प्रक्रिया में भी गड़बड़ नेता मिलते हैं, पर इन पर तत्काल कार्रवाई होती है. लोग भूल गये हैं, भारत में भी आजादी के बाद नेताओं को तराशने-गढ़ने का ऐसा ही काम शुरू हुआ था.
पंडित नेहरू की पहली कैबिनेट में अनेक लोगों ने शामिल होने से मना कर दिया था. कहा, वे बाहर रहकर पार्टी बनाने, समाजसेवा करने जैसा काम करेंगे. एक से एक योग्य, त्यागी कद्दावर और चरित्रवान थे. ऐसे लोग सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं. कम्युनिस्टों में, समाजवादियों में, आरएसएस में, जो गुमनाम रह कर अपने दल के सिद्धांत, आदर्श और मूल्यों के लिए लोगों को तैयार करते रहे. आज भारत में यह प्रक्रिया ही बंद है.
भारत बनानेवाले बड़े नेताओं ने सपना देखा था कि लोकतंत्र में यह काम राजनीतिक दल करेंगे. दलों के अंदर लोकतंत्र होगा और प्रतिभाशाली लोग, चरित्रवान लोग उभर कर सामने आयेंगे. पर आज दल तो उन नेताओं की पॉकेट के खिलौने हैं, जिनके पास दौलत, सामर्थ्य और संसाधन हैं या जो सत्ता में हैं, वे सत्ता में रहने के कारण ही अपनी जागीरदारी चलाने की स्थिति में हैं. कहां है, देशभक्ति? या विचारों की ताकत या देश के लिए वह सपना, जो पंडित नेहरू ने आजादी के तत्काल बाद आधी रात को देश को संबोधित करते हुए दिखाया और कहा, हम नियति से मुठभेड़ के पल में हैं. आज कितनी दयनीय स्थिति है, भारत की.
26.04.13 को भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का बयान आया कि वह बातचीत के लिए चीन जायेंगे. पता नहीं उन्हें किसने न्योता है? चीन के विदेश या रक्षा मंत्री तो साफ कह रहे हैं कि चीन ने कोई घुसपैठ ही नहीं की है. लगता है कि चीन को लेकर भारत के पास कोई मुकम्मल रणनीति ही नहीं है. दो दिन पहले दक्षिण भारत में भारत के रक्षा मंत्री एके एंटनी ने बयान दिया कि चीन से बातचीत चल रही है. हल निकल जायेगा. ठीक दो दिन बाद भारत के थल सेनाध्यक्ष का बयान आया कि दोनों देशों की सेना के बीच जो बात चल रही थी, अब उससे हल नहीं निकलनेवाला.
संकेत साफ है कि यह घुसपैठ चीन के शीर्ष नेतृत्व की सहमति से है. कुछ ही दिनों पहले टाइम्स आफ इंडिया की लीड खबर थी कि भारत-चीन की4057 किलोमीटर सीमा पर 600 बार चीन ने घुसपैठ की है. यह तीन वर्षों में हुआ है. फिर भी यह सवाल देश में मुद्दा नहीं है. हम किस चरित्र के लोग हैं? जरूरत है कि खुद आत्ममंथन करें. प्रधानमंत्री को तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह के लिखे पत्र से भूचाल खड़ा हो गया था. पर, उस पत्र में जो बातें थीं, किसी भी समझदार मुल्क या संवेदनशील सरकार या व्यवस्था को बेचैन तो उन तथ्यों पर होना चाहिए. उस पत्र में कहा गया कि सेना खराब हालत में है. उसकी ट्रकें बुरी स्थिति में हैं. तोपखाना पुराना पड़ चुका है. अपर्याप्त है. हवाई सुरक्षा (एयर डिफेंस) पुरावशेष की स्मृति भर है. मिग विमान जहां देखिए, वे उड़ते हैं और दुर्घटनाग्रस्त होते हैं. हमारे सर्वश्रेष्ठ लड़ाकू पायलट ऐसे ही मारे जा रहे हैं. शस्त्रगार या हथियार घर भरोसेमंद नहीं हैं. रात में लड़नेवाले हथियार अपर्याप्त हैं. भरोसेमंद नहीं हैं. हेलीकॉप्टरों को तत्काल बदलने की जरूरत है. तीन से पांच दिन युद्ध के लिए भी हथियार भंडार में नहीं हैं.
जनरल वीके सिंह ने अति ऊंचाई और ठंडी जगहों पर लड़ने के लिए मामूली जरूरी हथियारों के बारे में भी सवाल उठाये. इस पत्र के एक वर्ष बाद भी आज हालात लगभग वही हैं. क्या देश इन में इन चीजों पर बात नहीं होनी चाहिए? पर बात हुई जनरल वीके सिंह को हटाओ. धन्य हैं, हम?
एक मामूली आदमी भी जानता है कि आज भारत, चीन से युद्ध करने की स्थिति में नहीं है. युद्ध अंतिम हथियार है. आज युद्ध, दुनिया को तबाह कर सकता है. इसलिए इस लेख का आशय, दूर-दूर तक युद्ध की वकालत नहीं है. महज हम यह कहना चाहते हैं कि हर अपमान में संकल्प की आहट भी है. चीन द्वारा बार-बार भारत के इस अपमान से हमारा पौरुष, कर्म, देशप्रेम और संकल्प जगे. हम एक महान राष्ट्र बनें. हम यह चर्चा शुरू करना चाहते हैं कि हम कैसे इस मुकाम पर पहुंचे और कैसे अब भविष्य में हम अपनी तकदीर बदल सकते हैं? राष्ट्रीय चर्चा के लिए यही उपयुक्त घड़ी है. तत्काल कदम तो हो सकते हैं कि भारत, पूर्वी एशिया की अपनी रणनीति पर नजर डाले. तिब्बत का प्रसंग फिर उठे. आज दक्षिण-पूर्व और एशिया के कई देश हैं, जो चीन से तबाह और परेशान हैं.
वियतनाम, जापान, दक्षिण कोरिया आदि. क्यों नहीं भारत इन देशों के साथ मिल कर एक समूह बनाता? साथ ही भारत को अमेरिका के साथ मिल कर इस इलाके में सामरिक सुरक्षा की नीति पर काम करना चाहिए. हिंद महासागर में भारत अपनी ताकत मजबूत करे. भारतीय बाजार में चीनी समानों के विकल्प में भारत अपने औद्योगिक उत्पादन से कम से कम देश के बाजार को पाटे. हमारे उद्यमी, चीन से कतई कमजोर और पीछे नहीं हैं.
हम अपनी प्रतिभाओं का अपने ‘रेडटेप’ (पुराने कानून) से गला घोटते हैं. ये और ऐसे अनेक तात्कालिक उपाय हैं, चीन के इस रूख से निपटने के लिए. पर असल उपाय तो दीर्घकालीक हैं. इस चर्चा के प्रसंग में हाल में प्रकाशित एक अतिमहत्वपूर्ण पुस्तक का उल्लेख करना चाहेंगे. हर भारतीय को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए. पुस्तक का नाम है, ली क्वान यू. द ग्रैंड मास्टर्स इनसाइट ऑन चायना. द यूएस स्टेट एंड द वर्ल्‍ड. इंटरव्यू एंड सेलेक्शन वाइ - ग्राहम एलिशन एंड राबर्ट डी ब्लैकविल विथ अली वायन. फारवर्ड बाई हेनरी ए किसिंगर.
बताने की जरूरत नहीं है कि दुनिया में आज जो सबसे दृष्टिसंपन्न राजनेता माने जाते हैं, उनमें सिंगापुर के ली क्वान यू सबसे अग्रणी हैं. इनके बारे में चाहे चीन के राष्ट्रपति हों या अमेरिका के राष्ट्रपति, मानते हैं कि उनके पास सबसे आधुनिक और उपयोगी रणनीतिक सोच है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश ने तो कहा कि अपने सार्वजनिक जीवन की लंबी अवधि में मैं अनेक अत्यंत प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों से मिला, पर ली क्वान यू जैसा कोई नहीं. ली ने दो खंडों में अपनी आत्मकथा भी लिखी है. उसमें भी भारत पर लंबी चर्चा है.
हर वह आदमी, जो इस देश को महान और ताकतवर देखना चाहता है, उसे ली की आत्मकथा भी अवश्य पढ़नी चाहिए. पर इस पुस्तक, ली क्वान यू में ली ने चीन के बारे में, अमेरिका के बारे में और दुनिया के भविष्य के बारे में दिये अनेक साक्षात्कारों में जो कुछ कहा है, उसे तीन अत्यंत महत्वपूर्ण विद्वान प्रोफेसरों (हार्वर्ड केनेडी स्कूल के ग्राहम एलिसन, काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन के रॉबर्ट डी ब्लैक और वेलफेर सेंटर के प्रोफेसर अली वायन) ने संकलित किया है.
(जारी)

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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

‘वो’ स्वस्थ रहें और हम कूड़े में!


अमीर देशों के लिए कूड़ाघर बन गये गरीब देश
भारत सबसे बड़ा कचराघर
(रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के लिए यह सबसे चिंताजनक स्थिति है क्योंकि अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत दुनिया के सबसे बडे. कचरा घर में तब्दील हो गया है. पर्यावरण एजेंसियां भी इस बात पर चिंता जाहिर कर चुकी हैं कि जितना कचरा विदेशों से भारतीय बंदरगाहों पर आता है उसमें से महज 40 या 50 फीसदी कचरा ही रिसाइकिल हो पाता है. बाकी (इसमें प्लास्टिक, टायर और ई-कचरा भी) या तो जला दिया जाता है या फिर धरती में दबा दिया जाता है.)


जरा सोचिए, आपका पड़ोसी अगर अपना घर साफ रखने के लिए अपने घर का कूड़ा आपके घर में फेंक दे, कितना बुरा लगेगा और आप लड. भी जायेंगे? लेकिन आज जो वैश्‍विक स्तर पर हो रहा है, वह कड.वा सच है. लेकिन उसकी सब तरफ से अनदेखी की जा रही है. दुनिया के विकसित देश खुद को स्वच्छ रखने के लिए अपना कूड़ा-कचरा विकासशील विशेष कर भारत, इंडोनेशिया और चीन जैसे देशों में डंप कर रहे हैं. रिसाइकिलिंग के नाम पर जमा हो रहे कचरे के चलते खुद भारत विश्‍व के सबसे बडे. कचराघर में तब्दील होता जा रहा है.

एक दशक से जारी है सिलसिला : 
ब्रिटेन के ‘डिपार्टमेंट ऑफ इनवयारमेंट, फूड एंड रूरल अफेयर’ की ओर से जारी रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि हर साल 12 मिलियन टन के कचरे का आखिर क्या होता है. चिंता की बात यह है कि कचरे को विदेशों खासकर एशिया में भेजने का यह सिलसिला पिछले एक दशक में दुगना हो गया है. कानून कहता है कि विदेश भेजने के बाद कचरे की रिसाइकिलिंग अनिवार्य है, जबकि पर्यावरण विभाग स्वयं ये स्वीकार करता है कि कुछ देशों में रिसाइकिलिंग के नाम पर कचरा जलाया या धरती में दबाया जा रहा है.

दबाने का नुकसान :
भारत में जितनी मात्रा में कचरा धरती में दबाया जा रहा है, उतनी ही तेजी से लैंडफिल गैसों के उत्सर्जन का खतरा बढ. रहा है. धरती में दबे कचरे से लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन होता है जिससे पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होता है. जनता में भयानक बीमारियां पैदा होती हैं. ध्यान रहे लैंडफिल गैसों के चलते कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी भी हो सकती है.

105 देश भेज रहे कचरा :
पहले विकसित देश भी अपना कूड़ा धरती में दफना देते थे, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगने के बाद उन्होंने अपना कचरा डंप करने के लिए उन देशों की तलाश की जहां रिसाइकिलिंग के नाम पर कचरा निर्यात किया जा सके. यकीन नहीं होगा लेकिन विश्‍व के 105 देश अपना औद्योगिक कचरा भारत भेजते हैं.

आर्थिक पेच भी :
रिपोर्ट के मुताबिक आर्थिक दृष्टि से भी विकसित देशों के लिए कचरा निर्यात करना फायदेमंद है. दरअसल ब्रिटेन, अमेरिका और र्जमनी में विषैले कचरे को रिसाइकिल करने में 140 पाउंड खर्च होते हैं. दूसरी तरफ यही कचरा अगर रिसाइकिलिंग के लिए भारत भेजा जाये, तो इस पर महज 40 पाउंड का खर्च होगा.

हमारी बड़ी लाचारी :
इस मसले पर सबसे चिंताजनक बात यह है कि इसमें अमीर देशों को ही दोष नहीं दिया जा सकता. विदेशों में बाकायदा कचरा निस्तारण के लिए कानून बने हैं. लेकिन भारत सरकार इस खतरे को भांपने के बावजूद इस संबंध में कानून बनाने की नहीं सोच रही. महज कुछ आर्थिक फायदे के लिए भारतीय कानून पर्यावरण व भारतीय जनता की जान के लिए इतना बड़ा खतरा मोल ले रहा है. दुनिया भर में चिंता का विषय बन चुके कचरा निस्तारण पर गंभीर कदम उठाने की बजाय भारत सरकार बेसल कन्वेंशन को सर्मथन दे रहा है. ऐसी नीति जिसके तहत भारत अपने बंदरगाहों पर विकसित देशों को अपना कचरा निर्यात करने की सहमति देता है. विकसित देश इस पॉलिसी का सर्मथन नहीं करते और धड़ाधड. अपना कचरा भारत में डंप कर रहे हैं. 

साभार: दैनिक 'प्रभात खबर', 8 अप्रैल' 2013,