सोमवार, 29 नवंबर 2010

“अगर...”

(किपलिंग की प्रसिद्ध कविता “IF” का ‘बच्चन’ द्वारा भावानुवाद:)

अगर तुम अपना दिमाग ठीक रख सकते हो
जबकि तुम्हारे चारों ओर सबके बे-ठीक हो रहे हों
और दोषी इसके लिए वे तुम्हें ठहरा रहे हों,

अगर तुम अपने ऊपर विश्वास रख सकते हो
जबकि सब लोग तुमपर सन्देह कर रहे हों
पर साथ ही उनकी सन्देह की अवज्ञा भी तुम न कर रहे हो,

अगर तुम नीके दिनों की प्रतीक्षा कर सकते हो
और प्रतीक्षा करते-करते ऊबते न हो,

या जब सब लोग तुम्हें धोखा दे रहे हों
पर तुम किसी को धोखा नहीं देते हो,

या जब सब लोग तुम्हें घृणा कर रहे हों
पर तुम किसी को घृणा न करते हो
साथ ही न तुम्हें न भले होने का अभिमान हो-
न बुद्धिमान होने का,

अगर तुम सपने देख सकते हो-
पर सपने को अपने पर हावी न होने दो
अगर तुम विचार कर सकते हो-
पर विचारों में डूबे रहने को ही अपना लक्ष्य न बना बैठे हो,

अगर तुम विजय और पराजय दोनों का स्वागत कर सकते हो
और दोनों में से कोई तुम्हारा सन्तुलन न बिगाड़ सकता हो,

अगर तुम शब्दों को सुनना
मूर्खों द्वारा तोड़े-मरोड़े जाने पर भी-
बर्दाश्त कर सकते हो
और उनके कपट-जाल में नहीं फँसते हो,

या उन चीजों को ध्वस्त होते देखते हो
जिनको बनाने में तुमने अपना सारा जीवन लगा दिया था
और अपने थके हाथों से उन्हें फिर से बनाने को उद्यत होते हो,

अगर तुम अपनी सारी उपलब्धियों का एक अम्बार खड़ा कर-
उसे एक दाँव पर लगाने का खतरा उठा सकते हो-
हार होय कै जीत,

और सब कुछ गँवा देने पर अपनी हानि के विषय में-
एक शब्द भी मुँह से न निकालते हुए
उसे कण-कण पुनः प्राप्त करने के लिए सन्नद्ध हो जाते हो,

अगर तुम अपने दिल, अपने दिमाग और अपने पुट्ठों को-
फिर से कर्म-नियोजित होने को बाध्य कर सकते हो-
जबकि वे पूरी तरह थक-टूट चुके हों
जबकि तुम्हारे अन्दर कुछ भी साबित न बचा हो-
सिवा तुम्हारे इच्छा-बल के
जो उनसे कह सके, तुम्हें पीछे नहीं हटना है,

अगर तुम भीड़ में घुम-फिर सको-
मगर अपने गुणॉं को भीड़ में न खो जाने दो
और सम्राटों के साथ उठो-बैठो-
मगर जन-साधारण का सम्पर्क न छोड़ो,

अगर तुम्हें प्रेम करने वाले मित्र और घृणा करने वाले शत्रु
दोनों ही तुम्हें चोट न पहुँचा सकते हों,

अगर तुम सब लोगों का लिहाज रखो
लेकिन एक सीमा के बाहर किसी का भी नहीं,

अगर तुम क्षमाहीन काल के एक-एक पल का हिसाब दे सको,
तो यह सारी पृथ्वी तुम्हारी है
और हर-एक वस्तु जो इस पर है;
साथ ही, वत्स, तुम सच्चे अर्थों में इन्सान कहे जाओगे,
जो उससे भी बड़ी उपलब्धि है

--:0:--
(हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के दूसरे खण्ड बसेरे से दूर से साभार उद्धृत- ताकि इसे पढ़कर किसी और के मन में भी आशा का नया संचार हो सके.)

शनिवार, 27 नवंबर 2010

मुनादी

(पटना में 4 नवम्बर 1974 को हुए ऐतिहासिक मार्च में लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर पुलिस की लाठीचार्ज के बाद धर्मवीर भारती द्वारा लिखी गयी कविता-)

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का....

हर खासो-आम को आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुण्डी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!

शहर का हर बशर वाकिफ़ है
कि पच्चीस साल से यह मुज़िर है
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाय
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाय
कि मार खाते भले आदमी को
और अस्मत लुटती हुई औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बे अदबी की जाय
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक़ क्यों नहीं?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है।

बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान-फ़रामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नज़र आते हैं
और फुटपाथों पर फ़रिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्प-पोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि ज़न्नत तारी हो गयी है ज़मीं पर,
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है?

आख़िर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानसों की तरह अपनी-अपनी कुर्सी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क़ की भलाई के लिये
रात-रात जागते हैं
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयॉर्क, टोकियो, लन्दन की ख़ाक
छानते फ़कीरों की तरह भटकते रहते हैं....

तोड़ दिये जायेंगे पैर
और फोड़ दी जायेंगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चलकर
महलसरा की चहारदिवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की।

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया;
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराईयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी ज़वाँमर्दी की दाद दें।

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरु किया था?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलक़श बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाय!

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं  
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार! यह सारा मुल्क़ तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बग़ावत नहीं बर्दाश्त की जायेगी कि
तुम फ़ासले तय करो और मंज़िल तक पहुँचो।
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जायेंगी
बैलगाड़ियाँ सड़क के किनारे नीम तले खड़ी कर दी जायेंगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जायेगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप!
क्योंकि याद रखो कि मुल्क़ को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाय!

बेताब मत हो
तुम्हें ज़लसा-ज़लूस, हल्ला-गुल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक़ है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार ज़लूस की शक्ल में निकलेगा-
दर्शन करो!
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ़्त लादकर लायेंगी
बैलगाड़ी वालों को दुहरी बख़्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जायेगा
नुक्कड़-नुक्कड़ पर प्याऊ बिठाया जायेगा
और जो पानी माँगेगा
उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जायेगा!

लाखों की तादाद में शामिल हो इस ज़लूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह ख़ून जो इस बुड्ढे की वज़ह से
बहा, वह पुँछ जाय!
बाश्शा सलामत को ख़ून-ख़राबा पसन्द नहीं!
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम....

(‘पाञ्चजन्य’ के ‘आपातकाल’ अंक (25 जून 1995) से साभार) 

मॉरिशस से नौ कविताएँ

मॉरिशस से नौ कविताएँ-
इस शीर्षक से किसी जमाने में धर्मयुग में अभिमन्यु अनत की नौ कविताएँ छपी थीं.
मेरे पिताजी ने इन कविताओं को एक डायरी में लिख लिया था.
उसी डायरी से आज इन कविताओं को मैं आपके लिए प्रस्तुत करता हूँ:
(1)    
जाये ये दे कहकर तुमने
विभीषण को जाने दिया
आये दे कहकर तुमने
जयचन्द को आने दिया
छोड़ दे कहकर अब तुम
छुड़ाना चाह रहे हो
जकड़ी हुई अपनी गर्दन को
                  ***

(2)  
पानी की एक बूँद
खून की एक बूँद से मिलकर
अपना अस्तित्व खो बैठी 
और खून की एक बूँद
पानी की एक बूँद से मिलकर
.......................
उसे भी अपना रंग दे गयी
फिर भी पानी खून नहीं हुआ
और खून पानी हो गया।
                  *** 
     
(3)
मेरे देश के मनमोहक समुद्रतट
उस श्वेत आक्रमण को
तुमने सुपुर्द कर दिया
व्यवसाय की भाषा में
जो सैलानी हैं।
अब गंगास्नान के लिए
मेरे आँगन में
बरसात का जमा पानी है।
                  ***
      (4)
तुम भी शहर के बीच के जंगल के राजा थे
मैं दास था बन्धेज के कारण
आंड्रोक्लीज की तरह मुझे भी
तुम पर दया आयी
मैंने भी तुम्हारे पैर से काँटा निकाला
तुम वन-पशु नहीं आदमी थे
इसलिए तुम आज भी मुझे दबोचे हुए हो
                  ***

      (5)
मेरे दोस्त!
उस भाषा में मेरे लिए
शुभ की कामना मत कर
जिसकी चुभती ध्वनी मुझे
उन गुलामी के दिनों की याद दे जाती है
चाबुक की बौछारों का आदेश
निकलता था जिस भाषा में
उस भाषा को मेरी भाषा मत कह
मेरे दोस्त!
                  ***
      (6)
तू और किस स्वर्ग की बात करता है
मैं तो दो स्थलों को जानता हूँ
एक वह वटवृक्ष है जहाँ जल कर
मेरे पूर्वज स्वर्गवासी हुए
दूसरा वह स्थान जहाँ
मेरा भविष्य मरकर वास कर रहा।
                  ***
      (7)
अतीत की रिसती छत से
मेरा वर्तमान
टप-टप टपक रहा
भविष्य के पेंदीहीन पात्र में।
                  ***
      (8)
धूप की जलती सलाखों को
नंगी पीठ पर सहता हुआ
तुम्हारी सलीब को ढोए जा रहा हूँ
मेरी यात्रा को सुगम बनाने के लिए
तुमने मेरी चावल की पोटली
अपने हाथों में ले ली!
                  ***
      (9)
ईख के खेतों का मजदूर
सूखे फेफड़े पर हाथ रक्खे मर रहा
एक भी डॉक्टर पास नहीं
उधर पाँच इंजीनियर मिलकर
ईख (चीनी) के कारखाने के पुर्जे पर
चर्बी लेप रहे।
                  ***
(बाद के दिनों में मुझे अभिमन्यु अनत की कहानी/कविताओं का संग्रह, उनका एक उपन्यास (नाम याद नहीं- यह एक मछुआरे की साहसी बेटी की जीवन गाथा पर आधारित था) और उनकी आत्मकथा पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. आत्मकथा में उन्होंने ‘अनत’ की व्याख्या ‘कभी न झुकनेवाला’ के रुप में की है.)