बुधवार, 31 जुलाई 2013

जगत मिथ्या या व्यक्ति?



       अपने पिछले लेख में डॉ. भरत झुनझुनवाला ने "खपत पर आधारित विकास" की अवधारणा को अपनाने के बजाय "आध्यात्मिकता पर आधारित खुशहाली" वाली अवधारणा का पक्ष लिया था
       सवाल उठता है- कौन-सी आध्यामिकता? क्या "ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या" वाली? व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व को नकार कर हिमालय की कन्दराओं में बैठकर परमात्मा से एकाकार होने की कोशिश वाली आध्यात्मिकता?
       बिलकुल नहीं! अपने अगले ही आलेख में डॉ. झुनझुनवाला ने शंकर द्वारा दिये गये (उपर्युक्त) सिद्धान्त को पलटने की बात कही है। उनके अनुसार, हमें "सृष्टि सत्य है, व्यक्ति मिथ्या" की अवधारणा को अपनाना होगा।
       प्रसंगवश, मैं भी इस बात को बहुत पहले से ही मानता हूँ देश के पतन की शुरुआत 11वीं सदी में हुई थी। इसका कारण खोजते हुए डॉ. झुनझुनवाला शंकर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" तक पहुँचे कि इस विचार ने हमारी "मानसिकता" को बदल दिया था और हम अपने पश्चिमोत्तर प्रान्त पर किलेबन्दी नहीं कर सकें।
       मेरा अपना मानना है कि हजारों वर्षों की समृद्धि एवं वैभव ने इस देश को 7वीं में "चरम" स्थिति पर पहुँचा दिया था और उसके बाद समाज का नेतृत्व करने वाला वर्ग "विलासी" बनने लगा था। इस वर्ग ने "खजुराहो" किस्म के मन्दिरों का निर्माण शुरु किया... जब 10वीं-11वीं सदी में पश्चिमोत्तर प्रान्त पर आक्रमण पर आक्रमण हो रहे थे, हम खजुराहों में अन्तिम कुछ मन्दिरों की नींव रखने में व्यस्त थे!
       खैर, "आध्यात्मिकता" की बात तो स्पष्ट हो ही रही है- लेख साभार उद्धृत है:     


एक दर्शन में पतन की जड़ें
डॉ भरत झुनझुनवाला

अर्थशास्त्री एन्गस मेडिसन का अनुमान है कि करीब हजार वर्ष पूर्व 1000 ई के आसपास विश्‍व की आय में एशिया का हिस्सा 67 फीसदी था, यूरोप का 9 फीसदी. परंतु 1998 में एशिया का हिस्सा घट कर 30 फीसदी रह गया, यूरोप का बढ. कर 46 फीसदी हो गया. एशिया के पतन में भारत का विशेष योगदान रहा, क्योंकि एशिया में भारत का हिस्सा करीब आधा था. यह पतन 1000 ई के बाद शुरू हुआ. इसके पहले करीब 4000 वर्षों तक हम समृद्ध थे. सिंधु घाटी, महाभारतकालीन इंद्रप्रस्थ, बौद्धकालीन लिच्छवी, मौर्य, विक्रमादित्य, गुप्त, हर्ष एवं चालुक्य साम्राज्यों ने हमें निरंतर समृद्धि प्रदान की थी. इन 4000 वर्षों में हमारे प्रमुख ग्रंथ, जैसे वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत आदि, की रचना हो चुकी थी. अत: मानना चाहिए कि इन ग्रंथों ने हमारे समाज को आध्यात्मिक उत्रति के साथ-साथ आर्थिक समृद्धि व राजनीतिक वैभव का मंत्र दिया था.
सन् 1000 के बाद महमूद गजनी, मुगल एवं ब्रिटिश लोगों ने हम पर धावा बोला और हमें परास्त किया. विचार योग्य है कि 1000 ई के आसपास ऐसा क्या हुआ कि 4000 वर्षों से समृद्ध सभ्यता अचानक अधोगामी हो गयी? ऐसा प्रतीत होता है कि शंकर के दर्शन के गलत प्रतिपादन के कारण यह हुआ. शंकर के समय को लेकर विद्वानों में विवाद है. कुछ का मानना है कि वे 800 ई के आसपास हुए, दूसरे विद्वानों का मानना है कि वे इससे बहुत पहले हुए थे. लेकिन इस विवाद में पडे. बिना कहा जा सकता है कि 800 ई के आसपास आदिशंकर ने स्वयं या उनके किसी विशेष शिष्य ने इस धरती पर भ्रमण किया था.
उपलब्ध विषय के लिए शंकर का मुख्य मंत्र है ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’. शंकर ने सिखाया कि यह जो संपूर्ण जगत दिख रहा है यह एक ही शक्ति का विभित्र रूपों में प्रस्फुटन है. मनुष्य स्वयं भी उसी एक ब्रह्म का स्वरूप है. अत: मनुष्य को चाहिए कि सांसारिक प्रपंचों में लिप्त होने के स्थान पर उस एक ब्रह्म से आत्मसात करे. तब उसे वास्तविक सुख की प्राप्ति होगी. ब्रह्म से आत्मसात करने पर व्यक्ति ब्रह्म की इच्छानुसार व्यवहार करेगा, जैसे कंपनी में नौकरी करने के पर व्यक्ति मालिक की इच्छानुसार व्यवहार करता है.
ब्रह्म क्या चाहता है? यदि ब्रह्म निष्क्रिय और अंतर्मुखी है तो साधक को भी निष्क्रिय व अंतर्मुखी होना चाहिए. पर यदि ब्रह्म सक्रिय है तो मनुष्य को उसके चाहे अनुसार सक्रिय रहना चाहिए. उपनिषदों में लिखा है कि पूर्व में ब्रह्म अकेला था. उसने सोचा मैं अकेला हूं, अनेक हो जाऊं.यानी अनेकता ही ब्रह्म की इच्छा थी, जैसे अनेकों प्रकार के पशु-पक्षी, पेड.-पौधे हैं. पर अनेकता कष्टप्रद होती है, जैसे भाई-भाई अपने को अलग मानने लगें तो वैर करते हैं. वहीं यदि अपने को एक परिवार मानें तो मित्रता और प्रसत्रता रहती है.
मेरी समझ में मूल समस्या यही है कि व्यक्ति खुद को स्वतंत्र समझने लगा है. इससे वह संपूर्ण सृष्टि से नहीं जुड. पाता है. एक उदाहरण से समझें. क्रिकेट टीम का हर खिलाड़ी टीम को जिताने के लिए खेले तो टीम जीतती है और वह भी. पर खिलाड़ी सिर्फ अपनी विशेषता दिखाना चाहें तो टीम में कलह उत्पत्र होता है और टीम हारती है.
शंकर ने इसका हल ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्याके रूप में निकाला. इसका अर्थ है कि जगत के आकर्षणों को मिथ्या समझ कर संपूर्ण जगत के हित के लिए कार्य करें. अपने 32 वर्ष के अल्प जीवन में शंकर सदा सक्रिय रहे- बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराया, मंदिरों का उद्धार किया, उपनिषदों पर टीका लिखी और चार मठ स्थापित किये. यदि जगत मिथ्या था, तो इन कायरें की क्या आवश्यकता थी?
1000 ई के बाद भूल यह हुई कि शंकर के अनुयायी जगत को मिथ्या बता निष्क्रिय हो गये. वे भूल गये कि संपूर्ण जगत ब्रह्म है, अत: यदि ब्रह्म सत्य है, तो जगत भी सत्य ही है. जब देश पर आक्रमण हो रहे थे, ये अनुयायी कंदराओं में बैठ कर ब्रह्म से एका कर रहे थे. जगत मिथ्या होने के बाद बचा मैं’. यह मैंस्वतंत्र हो गया. उसे जगत के हित-अहित को देखने की चिंता नहीं रही. जगत में गरीब मरता है तो मरने दो. इससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है! इसी कड़ी में आज देश के नेताओं के लिए सिर्फ अपने हित को साधना स्वीकार हो गया है. उन्हें राष्ट्र दिखाई नहीं दे रहा है. व्यक्तिवादी उपभोग हेतु प्रकृति यानी जल, जंगल, जमीन का अतिदोहन सृष्टि की उपेक्षा ही है. ऐसा आर्थिक विकास हमें दीर्घकाल में गहरे संकट में डालेगा. अत:शंकराचार्य के मंत्र को सृष्टि सत्यम् व्यक्ति मिथ्याके रूप में समझना चाहिए. मेरा मानना है कि उक्त परिवर्तन करने पर देश की दबी हुई ऊर्जा प्रस्फुटित हो जायेगी और हम विश्‍व में अपना उचित स्थान फिर हासिल कर लेंगे.
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विकास बनाम खुशहाली



मैं अक्सर सोचता था कि आखिर मैं अपनी "खुशहाली" वाली अवधारणा को कैसे प्रकट करूँ कि यह "विकास" से अलग लगे। इस पर विचार करने के लिए मुझे थोड़ा लम्बा समय चाहिए था और मैं अब तक टाल रहा था।
भला हो अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला महोदय का, जिन्होंने एक लेख "सुख चाहिए या भोग" लिखकर मुझे ज्यादा विचार करने से बचा लिया।
लेख थोड़ा जटिल लग सकता है, मगर पढ़ा जा सकता है।
विकास "खपत" या "उपभोग" पर आधारित है, जबकि खुशहाली में व्यक्ति के भौतिक विकास के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखा जायेगा।
भूटान ने बिल्कुल इसी रास्ते को चुना है- वहाँ जी.डी.पी. से नहीं, बल्कि जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को मापा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी भूटान की इस अवधारणा को स्वीकार कर लिया है और इसी साल से प्रतिवर्ष 20 मार्च को "खुशहाली दिवस" मनाने का फैसला लिया है।
डॉ. झुनझुनवला के लेख को मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ, जबकि GNH के बारे में ज्यादा जानने के लिए दो लिंक दे रहा हूँ:

सुख चाहिए या भोग
डॉ. भरत झुनझुनवाला

प्रश्न अटपटा लगता है. भूखे को भोजन मिल जाये; बच्चे को क्रिकेट बैट मिल जाये अथवा गृहिणी को मिक्सर मिल जाये तो खपत में वृद्घि होती है और व्यक्ति को सुख मिलता है. यह सामान्य स्थिति है. दूसरी परिस्थितियों में यह संबंध नहीं दिखता है. जैसे जैन मुनि भोजन छोड. कर प्राण त्याग देते हैं और इसी में सुख महसूस करते हैं. इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि खपत और सुख का संबंध सीधा नहीं है. खपत और सुख का समन्वय बुद्घि और मन के माध्यम से होता है. खपत को बुद्घि मानिए और सुख को मन मानिए. यदि मन में केला खाने की इच्छा हो और केला मिल जाये तो व्यक्ति सुखी होता है. इसके विपरीत यदि मन में मिठाई खाने की इच्छा हो और सामने केला रख दिया जाये तो खपत बढ.ती है, परंतु सुख नहीं मिलता. निष्कर्ष यह है कि मन के अनुकूल खपत ही सुखदायी होता है.
खपत और सुख के इस संबंध को हमारे संविधान में स्वीकार किया गया है. अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार है. यहां जीवन का अर्थ खपत से है, जैसे पानी, भोजन, मकान आदि से. अनुच्छेद 21 के कार्यान्वयन के लिए आर्थिक विकास जरूरी है. इसके विपरीत अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता है. यहां धर्म को मन से जोड. कर देखना चाहिए. धर्मों का सार मनुष्य के अंतर्मन से जुड़ा दिखता है. कहा जाता है कि भगवान मन में बसते हैं. अनुच्छेद 25 के कार्यान्वयन के लिए आर्थिक विकास को त्यागना पड. सकता है. जैसे धर्म कहे कि व्यक्ति शांति से पूजा करे, तो मंदिर-मसजिद के बाहर बज रहे लाउडस्पीकर को बंद करना होगा. इससे दुकानदार की बिक्री कम होगी. अथवा व्यक्ति कहे कि उसे गंगाजी में आचमन करना है, इसलिए गंगाजी को प्रदूषित न किया जाये. ऐसे में कंपनियों को प्रदूषण प्लांट लगाना होगा, उत्पादन लागत बढे.गी और आर्थिक विकास मंद पडे.गा.
धर्म और विकास का यह द्वंद्व उत्तराखंड विभीषिका में भी दिखता है. 2009 में मंदिर के पुजारियों और परियोजना के अधिकारियों के बीच दो बार वार्ता हुई. दोनों बार देवी ने किसी व्यक्ति में अवतरित होकर कहा कि वह अपना स्थान नहीं छोड.ना चाहती है. बीते 15 जून को भी देवी ने स्पष्ट रूप से कहा कि मुझे जबरन उठाओगे तो मैं विडाल लाऊंगी. पुजारियों ने तीन कन्याओं को लाकर मूर्ति को जबरन उठाया. 16 जून को आयी विभीषिका इस मूर्ति को उठाने से जुड़ी है या नहीं इस पर विवाद है. पुरी के शंकराचार्य मानते हैं कि मूर्ति को उठाने से विभीषिका आयी. इसके विपरीत सरकारी अधिकारी इसे अंधविश्‍वास मानते हैं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने सुरक्षा सिद्धांतअथवा प्रीकॉशनरी प्रिंसिपलकी व्याख्या की है. कहा है कि जहां खतरे की संभावना हो, उस कार्य को नहीं करना चाहिए. अत: प्रमाणित न हो तो भी मूर्ति को नहीं उठाना था, चूंकि खतरे की संभावना थी.
जल विद्युत परियोजना से बिजली का उत्पादन होगा, नागरिकों की खपत बढे.गी, जो कि अनुच्छेद 21 के तहत सरकार का दायित्व है. इसके विपरीत मूर्ति को अपने स्थान पर बनाये रखने से लोगों का धर्म के अनुसार पूजा करने का अधिकार रक्षित होता है, जैसा कि अनुच्छेद 25 में कहा गया है. इस प्रकार खपत एवं मन, अथवा अनुच्छेद 21 एवं 25 के बीच प्राथमिकता का सवाल उठता है. मेरी समझ में अनुच्छेद 25 का स्तर ऊंचा है, क्योंकि संविधान में किसी को इससे वंचित करने की व्यवस्था नहीं है, जबकि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत नागरिक के राइट टू लाइफ को कानूनी प्रक्रिया के अनुसार वंचित किया जा सकता है. जैसे किसान बोले कि मेरी खेती की हानि होगी इसलिए विद्युत परियोजना न बनायी जाये, तो सरकार उसे जबरन हटा सकती है, चूंकि बड़ी संख्या में लोगों की खपत बढ़ाने में एक व्यक्ति आडे. आ रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल में दिये वेदांता निर्णय में अनुच्छेद 25 को प्राथमिक ठहराया है. ओड़िशा में वेदांता कंपनी द्वारा नियमगिरि पर्वत पर खनन करने का प्रस्ताव था. स्थानीय लोग इस पर्वत की पूजा नियम राजा के नाम से करते हैं. कोर्ट ने कहा कि आर्थिक समृद्घि अथवा खपत में वृद्घि के लिए लोगों के धर्म पालन के अधिकार को नहीं छीना जा सकता.
इस सिद्घांत के तहत बिजली बनाने के लिए धारी देवी को नहीं उठाना चाहिए. मूल समस्या यह है कि सरकार और न्यायालयों ने खपत को ही गॉड मान लिया है. श्री अरविंद, विवेकानंद एवं इकबाल ने कहा है कि इस देश की पहचान आध्यात्मिक कृत्यों अथवा मन के फैलाव से है, न कि खपत के फैलाव से. मनीषियों के इस दृष्टिकोण को नजरंदाज करेंगे, तो ऐसी विभीषिकाएं बारंबार आयेंगी.
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