जिनके बूटों से कीलित है भारत माँ की छाती 
जिनके दीपों में जलती है तरूण आंत की बाती 
ताजा मुंडों से करते हैं जो पिशाच का पूजन 
है असह्य जिनके कानों को बच्चों का कल-कूजन 
जिन्हें अंगूठा दिखा-दिखा कर मौज मारते डाकू 
हावी है जिनके पिस्तौलों पर गुंडों के चाकू 
चांदी के जूते सहलाया करती जिनकी नानी 
पचा न पाए हैं जो अब तक नए हिंद का पानी 
जिनको है मालूम खूब शासक जमात की पोल 
मंत्री भी पीटा करते जिनकी खूबी के ढोल 
युग को समझ न पाते भूसा भरे दिमाग 
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग 
पुलिस-महकमे के वे हाकिम सुन लें मेरी बात 
जनता ने हिटलर-मुसोलिनी तक को मारी लात 
अजी, आपकी बात बिसात है, क्या बूता है कहिए 
सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस हैं तो विनम्र रहिए 
वर्ना होश दुरुस्त करेगा, आया नया जमाना 
फटे न वर्दी, टोप न उतरे, 
प्राण न पड़े गंवाना.  
(1955) 
("जनसत्ता" (रविवारी), 9 अगस्त 1998 से साभार) 
 
 
सच्चाई को वयां करती रचना , बधाई!
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जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - देखें - 'मूर्ख' को भारत सरकार सम्मानित करेगी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा