आज जबकि देश
में चारों तरफ घटाटोप अन्धेरा छाया हुआ है- कहीं आशा की कोई किरण नहीं दीख रही,
ऐसे में अगर मैं "भारत
के पुनरुत्थान" और "भारतीयता के पुनर्जागरण" की कल्पना कर रहा
हूँ, तो क्या मैं मूर्ख हूँ? क्या ऋषि अरविन्द और स्वामी विवेकानन्द के सपने कभी
सच नहीं होंगे? क्या श्रीराम शर्मा आचार्य की बातें झूठी साबित हो जायेंगी? मुझे
तो ऐसा नहीं लगता।
पिछले दिनों मैंने पाया कि दो गैर-भारतीय
मनीषी भी "भारत के पुनरुत्थान" और "भारतीयता के पुनर्जागरण"
की कल्पना कर रहे हैं। 'प्रभात खबर' में मैंने उनके विचार पढ़े। उन्हें ही साभार
उद्धृत कर रहा हूँ:
1. मारिया वर्थ का आलेख:
हालांकि मैं भारत
में लम्बे समय से रह रही हूं, पर अब भी कुछ मसले हैं, जिन्हें मेरे लिए समझना मुश्किल है- यहां बहुमत हिस्सा
सनातनी है. भारत अपनी प्राचीन सनातन परंपराओं के कारण विशेष है. इसी के कारण पश्चिम
के लोग यहां आते हैं, तब भी यहां
कई भारतीयों द्वारा अपने देश की सनातनी जड़ों को स्वीकार करने का इतना विरोध क्यों
किया जाता है.
र्जमनी में, आबादी का केवल 59 प्रतिशत हिस्सा दो बडे. ईसाई चचरें (प्रोटेस्टेंट
व कैथोलिका) से जुड़ा है, तब भी देश
को ईसाई देशों में शुमार किया जाता है. चांसलर एंजेला मार्केल ने हाल में र्जमनी
की ईसाई जड़ों पर जोर दिया, लोगों से
अपील की कि वे ईसाई मूल्यों को अपनाएं. 2012 में उन्होंने र्जमन कैथोलिक दिवस पर कार्यक्रम
में शामिल होने के लिए जी-8 सम्मेलन में
जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया. दो प्रमुख राजनीतिक दल अपने नाम के साथ ईसाई शब्द
जोड.ते हैं. इसमें मार्केल की सत्ताधारी पार्टी भी शामिल है. र्जमन उत्तेजित नहीं
होते, जब र्जमनी
को ईसाई देश कहा जाता है, गोकि मैं
उनकी इस स्थिति को समझती हूं. आखिरकार, चर्च का
इतिहास भयावह रहा है. ईसाईयत की कथित सफलता की कहानियां मुख्यत: क्रूरता से जुड़ी
हैं. पांच सौ साल पहले न सिर्फ अमेरिका में मूल आबादी के सामने ‘धर्म परिवर्तन करो या मरो’ का विकल्प दिया गया, बल्कि र्जमनी में भी 1200 साल पहले सम्राट कार्ल ने अपने नये विजीत
क्षेत्रों में बपतिस्मा से इनकार करनेवालों के लिए मौत की सजा की घोषणा की थी.
इससे उनके सलाहकार अलकुइन को कहना पड़ा कि कोई बपतिस्मा के लिए दबाव दे सकता है, लेकिन ईसा को मन में बसाने के लिए कैसे दबाव दिया
जा सकता है.
सौभाग्य से वह समय
बीत चुका है, जब चर्च के
मतों से असहमति जताते ही किसी का जीवन खतरे में पड. जाता था.और पश्चिम में आजकल बड़ी
संख्या में लोग असहमति जताते हैं और चर्च छोड. देते हैं- कुछ चर्च के अधिकारियों
के व्यवहार से तंग आ कर और कुछ इस धार्मिक मत में विश्वास नहीं रखते कि ‘ यीशु ही एकमात्र रास्ता हैं’ और कि ईश्वर उन सभी लोगों को नरक भेज देगा, जो इसे स्वीकार नहीं करेगा.
और इसके बाद वह
दूसरा कारण आता है, जिसे समझना
मुश्किल है कि आखिर क्यों सनातन धर्म से भारत को जोड.ने का विरोध किया जाता है.
यह अब्राहम के धर्मों से भित्र श्रेणी का है. इसका इतिहास ईसाईयत या इसलाम की
तुलना में कम हिंसक है. यह बल के बजाय तर्क के आधार पर लोगों को सहमत करने के
जरिये प्राचीन काल में फैला. यह कोई विश्वास प्रणाली नहीं है, जो अपने धार्मिक मतों पर आंख मूंद कर विश्वास
करने की मांग करता है, और न ही यह किसी की बुद्धि-मति को स्थगित
करता है. इसके विपरीत, सनातन धर्म लोगों को अपनी तलवार के बजाय
बुद्धिमता का इस्तेमाल करने को प्रेरित करता है. यह सत्य का अन्वेषण है, जो परिष्कृत चरित्र व ज्ञान पर आधारित
(जिसकी विधियां बतायी गयी हैं) है. इसमें विपुल प्राचीन साहित्य समाविष्ट है, जो न केवल धर्म व दर्शन से जुडे. हैं, बल्कि संगीत,वास्तुकला, नृत्य, विज्ञान, खगोल विद्या, अर्थशास्त्र राजनीति आदि से भी संबंद्ध
हैं.
अगर र्जमनी
या किसी भी पश्चिमी देश के पास ऐसी साहित्यिक संपदा होती, तो वह गौरवान्वित महसूस करते और अपनी
महानता को प्रचारित करते. उदाहरण के
लिए जब मैं उपनिषद से परिचित हुई, तो मैं चकित
रह गयी. जिसे मैं सहज तौर पर सत्य मानती थी, उन्हें यहां स्पष्ट तकरें के साथ बताया गया था. ब्रह्म
असार्वत्रिक नहीं है, यह अदृश्य
है, तत्व रूप
में हर चीज में विद्यमान है. हर किसी को बार-बार परम सत्य की खोज करने का अवसर
मिलता है और इसे पाने के लिए वह अपना रास्ता चुनने को स्वतंत्र है. मदद के लिए
संकेत दिये गये हैं, पर उन्हें
थोपा नहीं गया है.
भारत में
अपने शुरुआती दिनों में मैं समझती थी कि हर भारतीय अपनी परंपराओं को जानता व
सम्मान देता है. धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि मैं गलत थी. ब्रिटिश उपनिवेश के
मालिकों ने सफलतापूर्वक न केवल संभ्रांत प्राचीन परंपराओं से उन्हें दूर कर दिया, बल्कि उन्हें तुच्छ साबित कर दिया. इसने
ऐसी स्थिति बना दी कि ‘पढ़ा-लिखा
वर्ग’ मूल संस्कृत
पाठों को न पढ. सके और उन्हीं बातों पर विश्वास करे, जिन्हें ब्रिटिशर्स कहें. ज्ञान की यह कमी
और ब्रिटिश शिक्षा द्वारा मत-आरोपण (ब्रेनवाशिंग) कारण हो सकते हैं, जिससे ‘आधुनिक’ भारतीय पश्चिमी धर्मों, जिसमें आंख मूंद कर विश्वास करने (या कम
-से- कम घोषित करने) पर जोर है और जो अगर वजिर्त नहीं करता है, तो खुद विचार करने को हतोत्साहित करता है.
जबकि कई परतोंवाला सनातन धर्म ,जो
स्वतंत्रता देता है व किसी के भी बौद्धिक ज्ञान को प्रोत्साहित करता है.
पढे.-लिखे कई वर्ग
यह समझ नहीं पाते कि एक तरफ पश्चिम के लोग, खासकर जो इस विशाल देश पर अपना धर्म थोपने का
सपना देखते हैं, सनातन धर्म
की निंदा करने पर ताली बजायेंगे, क्योंकि
इससे पश्चिमी सार्वभौमिकता के भारत में विस्तार में मदद मिलेगी, दूसरी तरफ पश्चिम के कई लोग, जिसमें चर्च से जुडे. लोग भी शामिल हैं, अच्छी तरह विशाल भारतीय ज्ञान प्रणाली के मूल्य व
उपयुक्त आंतरिक ज्ञान को जानते हैं, मौलिक स्रोत
को खारिज करते हैं और इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे या तो यह उनका अपना विचार हो
या इसे ऐसा बना देते हैं, जैसे इसे
पश्चिम में जाना जाता है.
इनफिनिटी फाउंडेशन
के राजीव मेहरोत्रा ने इस क्षेत्र में काफी पर्शिम से शोध किया है व धर्म सभ्यता
के पश्चिमी सार्वभौमिकता में पचा लिये जाने के कई मामलों का संकलन किया है.
उन्होंने डाइजेशन (पाचन) शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसका मतलब होता है वह चीज, जिसे पचाया जा सके (जैसे हिरण), जिससे अंत में उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है, वहीं पचानेवाला (जैसे शेर) मजबूत हो जाता है. इसी
तरह भारतीय सभ्यता अपनी कीमती, विशेष संपदा
के मामले में जर्जर होती जा रही है और जो कुछ बच गया है, उसे निम्न कहा जा रहा है.
अगर केवल
मिशनरियां सनातन परंपरा को नीचा दिखाये, तो यह उतना बुरा नहीं होता, क्योंकि उनके पास स्पष्ट एजेंडा है, जिसे सूक्ष्मदश्री भारतीय पहचान लेंगे, लेकिन अफसोस है कि परंपरागत भारतीय नाम
वाले भारतीय उन्हें मदद पहुंचाते हैं. वास्तविकता यह है कि अंगरेजों ने जो उन्हें
बताया, उसके अलावा
वे अपनी परंपरा के बारे में बहुत थोड़ा जानते हैं, वह यह कि इसकी मुख्य विशेषताएं जाति व
मूर्ति पूजा है. वे यह समझ नहीं पाते कि भारत फिर नयी ऊंचाई हासिल करेगा, नीचे नहीं जायेगा, अगर वह अपनी महान व समावेशी सनातन
परंपराओं का मजबूती से सर्मथन करे. कुछ समय पहले दलाई लामा ने कहा था कि अपनी
युवावस्था में ल्हासा में वे समृद्ध भारतीय विचारधारा से गहराई से प्रभावित रहे
थे. उन्होंने यह भी कहा था, ‘भारत के पास
दुनिया को मदद करने की अपार संभावनाएं हैं.’ पाश्चात्य रंग में रंगा भारतीय कुलीन वर्ग इसे
कब समझेगा?
(जागो
बांग्ला से साभार) मारिया वर्थ का आलेख
साभार: "अपनी
जड़ों को नकारने की जरुरत नहीं", प्रभात खबर, 13 अगस्त 2013.
***
2. डेविड फ्रावले का साक्षात्कार:
आपने अपनी वेबसाइट पर जिक्र
किया है कि भारत में राइट (सही) सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक एक्शन
(कार्रवाई ) की जरूरत है. ‘राइट ’ से आपका क्या मतलब है?
भारत में न केवल आध्यात्मिक
परंपरा, बल्कि कई अन्य परंपराएं हैं. पारिस्थितिक(इकोलॉजी), वास्तु
और कई अन्य से संबंधित वैदिक अप्रोच हैं. वे आधुनिक समस्याओं का धार्मिक समाधान दे
सकते हैं. इसके लिए पश्चिम की ओर देखने की जरूरत नहीं है. भारतीय मानते हैं कि उनके आध्यात्मिक परंपराओं में कई तरह के
मूल्य हैं. यहां तक कि अगली शताब्दी में भी समस्याओं के जो हल हो सकते हैं, वे पश्चिम
के बजाय पर्व की परंपराओं में निहित हैं. हम उस युग में पहुंच चुके हैं, जब
वाणिज्यवाद और पर्यावरण का विनाश गहरा गया है. समाज का धर्म, प्रकृति और
चेतना आनेवाली शताब्दी में महत्वपूर्ण प्रतिमान (पाराडिग्म) होननेवाली है. इसलिए
विलुप्त या हाशिये पर चली गयी परंपराओं में से कई को जिवित रखना महत्वपूर्ण है.
पश्चिमी संस्कृति, जिसमें
आपका जन्म हुआ है और हिंदू धर्म, जिसे आपने स्वीकार किया है, के
बीच आप कैसे सामंजस्य स्थापित करेंगे?
हमें बहुत स्वतंत्रता है, इसलिए मैं
वह कर सकता हूं, जो
मैं चाहता हूं. जब मैं 20 वर्ष था, जब मैं परहंस योगानंद की शिक्षा के संपर्क में आया. श्री
अरबिंदो और रमन महर्षि से भी जुड़ा. इससे विश्व के प्रति मेरा वैदिक दृष्टिकोण
विकसित हुआ. वेदों और ज्योतिष में मेरी रुचि बढ़ी. 70 के दशक में नेचुरल हीलिंग
मूवमेंट के साथ आयुर्वेद के प्रति मेरा झुकाव हुआ.
आप अपनी पहचान को कैसे
परिभाषित करेंगे?
मैं अपने आप को परिभाषित नहीं
करता. क्या करना चाहिए उसे मैं परिभाषित करता हूं. लेकिन मैं अपने आप को पूरब और
पश्चिम, पुरातन
और आधुनिकता के बीच एक सेतु के रूप में देखता हूं. वैदिक र्शान पर मेरी दृष्टि
व्यापक है, क्योंकि
योग, आयुर्वेद, ज्योतिष
संस्कृति की वो धाराएं हैं, जिनकी जड़ें वेद में समाहित हैं. भारत में मैने कई सामयिक
मुद्दों पर अपनी बात रखी है, जैसे आज के समाज का क्या परिदृश्य है? यह किस तरफ
जा रहा है. आइआइटी, दिल्ली में मैने आज के हालात, भूमंडलीकरण, सूचना एवं
संचार क्रांति, टेक्नोलाजी
और आज के दौर में उसे कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है, जैसे
मुद्दों पर अपने विचार रखे.
उच्च तकनीक से साथ आप तारतम्य
कैसे बिठा लेते हैं?
मैं किसी चीज के खिलाफ नहीं
हूं. लेकिन हाइ टेक व्लर्ड (उच्च तकनीक की दुनिया) अब तक सिर्फ सूचना के स्तर पर
है, इंटेलीजेंस
के स्तर पर नहीं है. इंटेलीजेंस किसी भी चीज के पीछे के सिद्धांत को समझने में
मददगार होता है. सिर्फ डाटा की मदद से किसी सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा
सकता है. अभी भूमंडलीकरण के पीछे जो करंट है, वह सिर्फ सूचना के स्तर पर
है. लेकिन सही मायने में भूमंडलीकरण के लिए इस करंट को लोगों के जागृत मन तक
पहुंचाना जरूरी है. हमलोग भूमंडलीकरण से प्रकृति को बाहर कर देते हैं. जिस
भूमंडलीकरण से प्रकृति खत्म होती है, वह भूमंडलीकरण नहीं है. उसे मनुष्य द्वारा अपने ग्रह का विनाश
करना कहा जा सकता है.
विश्व हिन्दू परिषद से भी
आपका जुड़ाव रहा हैं?
थोड़ा बहुत. बहुत से संगठनों
से मैं जुड़ा रहा हूँ जैसे बीजेपी, आरएसएस, आर्य समाज, श्री औरबिंदो आर्शम, श्रींगेरी और कांची शंकराचार्य, रामन आर्शम, प्रमुख
स्वामी और स्वामीनारायण ऑर्डर.
तो आपको लगता है कि एक
संस्कृति की ओर कोई अभियान चल रहा है?
एक संस्कृति लेकिन वेदिक सेंस
में अनेकवादी. सिर्फ एक धर्म या एक भाषा या एक वर्ण का राज नहीं. अमेरिकी
संस्कृति फैल रही है लकिन यह सतही है. कई संस्कृतियों को जैसे पारंपरिक, देसी, को
खत्म किया जा रहा है. जिस तरह धरती की सेहत के लिए जैव विविधता जरूरी है उसी तरह
समाज की सेहत के लिए सांस्कृतिक विविधता जरूरी है. पश्चिम की संभ्यता बहुत बड़ी है
और विनाशकारी भी है. यह दूसरों की संस्कृति और सभ्यता को पनपने देना नहीं चाहती.
क्या आपने हिन्दू धर्म को
स्वीकार कर लिया है?
हां, लेकिन यह
धर्मांतरण का मुद्दा नहीं है, अपने धर्म को खोजने का है. मेरा मानना है कि धर्मांतरण से किसी
का भला नहीं होता है. आपका अपना कर्म ही आपको बचाएगा. मैं नहीं मानता कि नाम कोई
मुद्दा है. अगर कोई व्यक्ति अच्छा है, तो उसकी पृष्ठभूमि मायने नहीं
रखती है. हमलोगों को व्यक्ति के करनी से उसके बारे में धारणा बनानी चाहिए.
क्या आप अपने को हिन्दू
कहेंगे?
हां, क्योंकि मैं
वैसे विचारों को मानता हूं. मैं मानता हूं कि वैदिक दर्शन ही सबसे सही है और मैं
इसी परंपरा के गुरुओं जैसे रमन महर्षी को मानता हूं.
क्या हिन्दू राष्ट्रवाद के
प्रति जागरूकता सही और सकारात्मक है?
इस मामले में मैं वीएस नायपॉल
के ज्यादा करीब हूं. हर जागरुकता का दोनों पहलू होता है. जैसे-अमेरिका में अपने
नागरिक अधिकारों के प्रति जब काले लोग जागरुक हुए, तब वहां कई अतिवादी समूह भी
बने. हिन्दुओं के लिए आज जागरूक होना जरुरी है. ईसाइयों ने यह कर लिया है.
मुसलमानों ने भी कर लिया है.बौद्ध धर्म को मानने वाले भी जागरूक हो गये हैं.
हिन्दुओं को दुनिया को आज यह बताने की जरूरत है कि इस दुनिया में उनका भी स्थान है, उनके
विचार हैं, दूसरे हम पर हावी नहीं हो सकते हैं. ज्योतिष को मानने वाले इसके आगे सर्मपण कर देते हैं. वैदिक
ज्ञान के अनुसार कर्म ही सर्वोपरी है. कर्म भाग्य नहीं है. कर्म का मतलब है कि समय
के साथ हम अपने आप का निर्माण करते हैं. इसलिए आयुर्वेद और ज्योतिष की मदद से हमें
अपने कर्मों को बदलना चाहिए . अपना भविष्य सुधारने के लिए. मौसम की भविष्यवाणी की
तरह है ज्योतिष. अगर कल वर्षा की भविष्यवाणी होती, तो हम अपनी तैयारी उस हिसाब
से कर सकते हैं. लेकिन हम मौसम के रहमो करम नहीं है. ज्योतिष सिर्फ गाइड करने
के लिए है. यह दुर्भाग्य है कि लोग इसे अपना भाग्य समझ लेते हैं.
क्या आपने आध्यात्मिक ज्ञान
विकसित कर लिया है?
इसका उत्तर मैं नहीं दे सकता.
लेकिन जब मैं अपनी जिंदगी की तरफ देखता हूं ,तो पाता हूं कि मैने कई ऐसे काम किये हैं, जिनके बारे
में मैने कभी सोचा भी नहीं था. फिर भी मै यह नहीं कह सकता मैने अपनी सभी इच्छाओं
को पूरा कर लिया है, जिसे मैं कर सकता हूं. लेकिन मैं हमेशा भविष्य की ओर देखता हूं.
हमेशा कुछ चलते रहता है. चेतनमन बहती हुई नदी के समान होता है. सभी उसी धारा में
बहते हैं. सोचते नहीं हैं कि कितनी दूर आ गये. मेरे काम के कई पहलू हैं, जिन पर काम
कर रहा हूं, उनमें
योग व आयुर्वेद कई पहलुओं को समाहित करता है. यह आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, स्वास्थ्य
वैदिक सिद्धांतों के अनुसार दो विधियों में अंतरसंबंध को समेटता है.
क्या आयुर्वेद एलोपैथ का
समग्र जवाब है?
दूसरे को छोड.ने की कोई जरूरत
नहीं है. आयुर्वेद स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, एलोपैथ
तुरंत राहत के लिए, सर्जरी के लिए ठीक है.
क्या आप संस्कृत में वैदिक
श्लोकों को पढ.ते हैं?
हां, मैं संस्कृत
जानता हूं.
क्या वैदिक युग में तकनीक
विकसित हुआ था?
उस समय तकनीक का बहुत विकास
नहीं हुआ था, लेकिन प्रकृति की कई जटिल शक्तियों की जानकारी थी. उन्हें
मंत्रों व अन्य चीजों के बारे में जानकारी थी. इसलिए यह संभव है कि वे इस जानकारी
का इस्तेमाल उपकरणों के विकास के लिए करते रहे हों. मैं यह नहीं सोचता हूं कि उनके
पास वायु सेना थी. लेकिन उनके पास विमान था (फ्लाइंग मशीन). उनको तंत्र-मंत्र का
ज्ञान था, जो हम आज नहीं जानते हैं.
क्या आध्यात्मिक तकनीक संभव
है, जो मनुष्य को अपने आतंरिक शक्तियों का इस्तेमाल कर शक्तियों को
नियंत्रित करने में सक्षम बनायेगा?
एक योग के पास कुछ शक्तियां
होती हैं, जिनके जरिये वे शरीर के तापमान, अपने
विचार जैसे विभित्र चीजों को नियंत्रित करते हैं. हां यह संभव हैं.
क्या आपने ऋग्वेद के मूल
संस्करण का अध्ययन किया है? ईसाई मिशनरियां और भारतीय विद्वानों ने क्या गलतफहमी पैदा की है?.
काफी कुछ, उन्हें वेद
के योग की प्रकृति के बारे में कोई समझ नहीं थी. ऋग वेद की शुरुआत अग्नि से होती
है. लेकिन, अग्नि
कौन है? वे
कहते हैं कि यह वह आग है, जिसे आप त्याग के लिए सर्मपित करते हैं. पर नहीं, मैं समझता
हूं कि इसका मतलब अग्नि का सिद्धांत, प्रत्यक्ष ज्ञान, वैश्विक स्तर पर प्रकाश से है. पश्चिमी विद्वान व
मिशनरियां मामले को शब्दश: व सतही तौर पर लेती हैं. वे आध्यात्मिक, कवितामई
व प्रतीकात्मक मूल्यों को नहीं देख पाते. आध्यात्मिक स्तर पर अग्नि का अर्थ है
चेतना का सिद्धांत. इसलिए, प्राचीन समय
में लोग ब्रह्मंड व प्रकृति की ताकत को चेतना की शक्ति समझते थे. यज्ञ भी एक योग
व्यवहार था, जहां
आप वाणी, प्राण
व मस्तिष्क को चेतना की अग्नि में सर्मपित करते हैं. आधुनिक विद्वान, जिसमें
मार्क्सवादी भी हैं, ऋग वेद की आध्यात्मिक गहराई को देख नहीं पाते. वे विद्वान, जिनकी योग
पृष्ठभूमि जैसे श्री अरविंदो को वैदिक किताबों की गहरी समझ थी, मैक्स मूलर
अपने समय के अच्छे विद्वान थे, उन्होंने अच्छी शुरुआत की, पर उसे समाप्त करने के लिए यह बुरी जगह होगी. उन्होंने वैदिक
मूल ग्रंथों पर नजर दौड़ाने की प्रक्रिया की शुरुआत की. उनके पास इसे समझने के
उपकरण नहीं थे. वे योग व ध्यान करनेवाले नहीं थे. वे प्रतीकों को नहीं जानते थे.
इसीलिए उन्होंने इन्हें पौराणिक कथाओं, प्रतीक विद्या के अनुसार व्याख्या की.
भारतीय व पश्चिमी मस्तिष्क
कैसे सहयोग कर सकते हैं?
वे आसानी से सहयोग कर सकते
हैं. पश्चिमी भूमिका बाहर के विज्ञान को विकसित करने में होगी. भारतीय मस्तिष्क
आंतरिक विज्ञान को विकसित करेगा. मंत्र का विज्ञान. प्राण का, चिंतन
की विधियां, चक्र. आत्मिक विज्ञान बाहर के विज्ञान को संतुलित करने के लिए
जरूरी है. यह होगा भारत का योगदान. पश्चिम को इसे विकसित करने व प्रोत्साहित करने
की जरूरत है.
क्या इस भौतिक सभ्यता के लिए
कोई उम्मीद बची है या यह बदलने जा रहा है?
इसे बदलना ही होगा. सवाल यह
है कि इस तरह के बदलाव से पहले यह कितना नुकसान पहुंचायेगा. हम इस तरह आगे नहीं जा
सकते. आप प्रकृति को इसी तरह तहस-नहस करना जारी नहीं रख सकते. अमेरिका में हर
साल एक करोड. तीस लाख जानवर खाने के लिए मार दिये जाते हैं. इस तरह के विनाशकारी
सभ्यता को बदलना ही होगा. ठीक इसी समय समाज में ऐसी शक्तियां हैं, जो बदलाव
चाहती हैं. आपको यह जानना जरूरी है कि भारत के मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर
जोशी भारतीय इतिहास को कहीं अधिक पारंपरिक तौर पर व्याख्या करने का प्रयास कर रहे
हैं. ऐसा करना आवश्यक है. दुर्भाग्य से अधिकतर इतिहास की किताबें मार्क्सवादियों
द्वारा लिखी गयी हैं, जो भारत व हिंदुत्व को पसंद नहीं करते. जैसे रोमिला थापर. वे
कभी तपस्या नहीं करेंगी या मंदिर नहीं जायेंगी. एक देश के तौर पर भारत को चाहिए कि
वह अपनी शैक्षणिक विरासत को स्थापित करे.अमेरिका में अमेरिकी संस्कृति के विकास
में पुरीटन के बारे में पढ.ते हैं. आप इतिहास के एक सहभागी के बतौर महाभारत को
क्यों नहीं पढ. सकते. पूरी दुनिया में उपनिवेशकों की व्याख्या से भित्र इतिहास
गढ.ने का आंदोलन दिखता है. अमेरिका में काले कहते हैं कि हम अपनी दृष्टि से इतिहास
की व्याख्या चाहते हैं, हमें उपनिवेश की दृष्टि नहीं चाहिए, मार्क्सवादी
दृष्टि नहीं चाहिए, मिशनरी की दृष्टि नहीं चाहिए. इसे भारत में भी बदलने की जरूरत
है. उदाहरण के लिए प्राचीन भारत
की पुरातात्विक खोज 10-20 गुना बढ. गयी है. सरस्वती नदी का पूरा भूविज्ञान सामने आ गया
है. आप इन चीजों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं और इसे कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि 1930 में जो
पुरातात्विक खोज हुए वे अंतिम थे या वही केवल सत्य है. इसलिए यह आवश्यक है कि
किताबों को बदला जाये. और भारत की आध्यात्मिक विरासत रही है, जिसे विश्व
को स्वीकार करना चाहिए.
लेकिन यह विश्वास करना
मुश्किल है कि रामायण जैसी किताबें ऐतिहासिक रिकॉर्ड हैं. मैं नहीं समझता कि कोई
यह बात कह रहा है. रामायण महाकाव्य है, हालांकि इसके ऐतिहासिक आधार भी हैं. हो सकता है कि राम राजा
हों. कौन जानता है? ठीक-ठीक इतिहास की सनक पश्चिमी सनक है. हिंदू परंपरा में धर्म
की शिक्षाओं पर जोर है, लेकिन एक ऐतिहासिक सार भी है. उदाहरण के लिए पुराणों में राजाओं
की सूची - जिसे हम यह दावा नहीं कर सकते कि उनका अस्तित्व नहीं था. ईसा से तीन सौ
साल पहले अलेक्जेंडर के साथ जब मेगास्थनीज प्रभातर आया, तो उसके
अपने लिखे अनुसार उसने पाया कि 6,400 वर्षों की परंपरा है, जिसमें 153 राजा हैं. हम कैसे कह सकते हैं कि इन बातों का कोई आधार नहीं
है.
*****
साभार: प्रभात खबर, 12 अगस्त
2013. :
(टिप्पणी: वेदांत विद्वान डेविड फ्रावले वामदेव
शास्त्री के रूप में जाने जाते हैं.वह जन्म से अमेरिकी और विश्वास से हिंदू हैं.
वह अपने कार्य को इन दो विरोधी संस्कृतियों के बीच सेतु के निर्माण के तौर पर
देखते हैं और वह यह काम पूर्ण सर्मपण से करते हैं. वेदों
के अलावा फ्रावले आयुर्वेद, वैदिक
ज्योतिष, योग व तंत्र
के भी विशेषज्ञ हैं. वह कहते हैं, इन सबका का
आधार वेद हैं. फ्रावले ने इन सभी विषयों पर कई किताबें लिखी हैं, जिनमें योगा एंड वेदांता और आयुर्वेद एंड द माइंड
शामिल हैं. उनकी हाल की किताबों में वेदांता मेडिटेशन और योगा फॉर योर टाइप शामिल फ्रावले
कहते हैं कि भारत को अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए पश्चिमी सिद्धांतों को
अपनाने के बजाय अपने धार्मिक समाधान पर जोर देना चाहिए. उन्होंने इस विषय पर कई
किताबें लिखी हैं, हिंदूज्म
एंड द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन और द मिथ ऑफ द आर्यन इनवेजन. वह आधुनिक सभ्यता को
प्लेनेटरी संस्कृति के उदय के तौर पर देखते हैं, जिसका संबंध चेतना है. वह कहते हैं, नयी संस्कृति के संचालन में पूर्व के मूल्यों की
अहम भूमिका है. फ्रावले बेंगलुरु के नैमिशा रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ वेदिक स्टडीज से
जुडे. हैं और अमेरिका के न्यू मैक्सिको में द अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ वेदिक स्टडीज
के संस्थापक निदेशक हैं.)