शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

सबसे बड़े प्रेरणास्त्रोत!


सबसे बड़े प्रेरणास्त्रोत!

।। हरिवंश ।।

(आज मोटिवेशनअरबों-खरबों डॉलर का उद्योग बन गया है. पर भारतीय समाज को प्रेरणा पाने के लिए या संकल्प लेने के लिए मोटिवेशन इंडस्ट्री (प्रेरणा बाजार) की जरूरत नहीं है. अवसर है कि जब देश, स्वामी विवेकानंद की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब घर-घर तक उनके पुरुषार्थ, संकल्प और संघर्ष की बात पहुंचे. उनके जीवन को लोग जानें, ताकि देश में एक नया मनोबल पैदा हो. खासतौर से युवाओं के बीच स्वामी जी का संदेश पहुंचना जरूरी है.)

आज देश-दुनिया में सबसे अधिक मोटिवेशन (प्रेरणा) की बात होती है. पग-पग पर. मशीन या टेक्नालॉजी (तकनीक) की इस आधुनिक दुनिया में अकेलापन नियति है. जीवन का अर्थ ढूंढ़ना भी. जीने या होने (बीइंग) का आशय समझना. जीने का मर्म तलाशना भी. इस नयी दुनिया में पल-पल निराशा, हताशा और डिमोटिवेटिंग फोर्सेस (उत्साह सोखनेवाली ताकतें) से लड़ना आसान नहीं. इस युग का दर्शन है कि या तो धारा के साथ बहें, समय का गणित मानें, पैसे-पावर के खेल में हों या जीवन भोग में डूब कर जीयें या कथित सफलता के लिए आत्मसम्मान गिरवी रखें, चारण बनें. या फिर अपनी अंतरात्मा से जीयें, तो अकेले अपनी राह बनायें. दरअसल, संकट सबसे अधिक अंतरात्मा से जीनेवालों को है.
नयी पीढ़ी के युवकों-विद्यार्थियों में भी बड़ी बेचैनी है. उनकी परेशानियां अलग हैं. तीव्र स्पर्धा के बीच जगह बनाना. आइआइटी से लेकर अन्य बड़े संस्थानों के युवा छात्रों के बीच बढ़ती आत्महत्या, भारतीय समाज के लिए बड़ी चुनौती है.
मनुष्य के दुख को भी इस युग ने बाजार बना दिया है. निराशा, हताशा का धंधा. आज हजारों मोटिवेटर (प्रेरित करनेवाले) पैदा हो गये हैं. यह बिलियन (अरबों-खरबों) डॉलर का उद्योग बन गया है. इनके बीच अनेक जाने-माने लोग हैं, जो अच्छा काम कर रहे हैं, पर भारतीय समाज को प्रेरणा पाने के लिए या संकल्प लेने के लिए मोटिवेशन इंडस्ट्री (प्रेरणा बाजार) की जरूरत नहीं है.
विवेकानंद की हम 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. वह महज 39 वर्ष जीये. पर कई हजार वर्षों का काम कर गये. इस छोटी आयु में. उनके जीवन को नजदीक से देखने-समझने पर लगता है कि परेशानियों, चुनौतियों, मुसीबतों के पहाड़ के बीच वह पैदा हुए. पल-पल जीये. आजीवन इनसे ही घिरे रहे. फिर भी हैरत में डालनेवाले, स्तब्ध कर देनेवाले काम वह कर गये. यकीन नहीं होता कि भारी मुसीबतों के बीच एक इंसान की इतनी उपलब्धि.
आज लोग अपने जीवन से लेकर सामाजिक जीवन में जो चुनौतियां झेलते हैं, वे विवेकानंद की परेशानियों के मुकाबले एक रत्ती भी नहीं हैं. उनके शरीर को व्याधिमंदिरमकहा गया. जब तक वह जीये, बीमारियों से जूझे. उन्हें दो बड़ी बीमारियां तो वंशगत मिलीं. कहें, तो विरासत में. पहला मधुमेह और दूसरा हृदय रोग. अचानक पिता के न रहने के बाद से हमेशा ही उनके सिर में तेज दर्द की समस्या रही. उस दर्द से राहत पाने के लिए वह कपूर सूंघते थे. कहते हैं कि पूरे जीवन में उन्हें 31 बीमारियां हुईं. इनमें हृदय रोग, मधुमेह, दमा, पथरी, किडनी की समस्या, अनिद्रा, स्नायु रोग या न्यूरोस्थेनिया, लिवर संबंधी बीमारी, डायरिया, टाइफॉयड, टॉनसिल, सिर का तेज दर्द, मलेरिया, सर्दी-खांसी, विभिन्न प्रकार के बुखार, बदहजमी, पेट में पानी जमना, डिस्पेप्सिया, लाम्बेगो या कमर दर्द, गर्दन का दर्द, ब्राइट्स डिजीज, ड्रॉप्सी या पैर का फूलना, एल्बूमिनियूरिया, रक्तिम नेत्र, एक नेत्र की ज्योति का चले जाना, असमय बाल व दाढ़ी का सफेद होना, रात को भोजन के बाद गरमी का तीव्र अनुभव, गरमी सहन न कर पाना, जल्द थकना, सी सिकनेस व सन स्ट्रोक शामिल हैं.
समय-समय पर अपने परिचितों-मित्रों को उन्होंने पत्र लिखे. उन पत्रों में इन बीमारियों का उल्लेख है. कल्पना करें, इतनी बीमारियों से घिरे होने के बावजूद उस संन्यासी ने इतने कम समय में कैसे-कैसे काम किये? नितांत अविश्वसनीय. युगों-युगों तक असर डालनेवाले. 1897 में डाक्टर शशि घोष को अल्मोड़ा से उन्होंने पत्र लिखा. अनिद्रा रोग के संदर्भ में. पत्र में वह कहते हैं, ‘जीवन में कभी भी मुझे बिस्तर पर जाते ही नींद नहीं आयी. कम से कम दो घंटे तक इधर-उधर करना पड़ता है. केवल मद्रास से दाजिर्लिंग की यात्रा और प्रवास के पहले महीने में तकिये पर सिर रखते ही नींद आ जाती थी. वह सुलभ निद्रा पूरी तरह चली गयी है. अब फिर इधर-उधर करने की बीमारी और रात को भोजन के बाद गरमी लगने की समस्या लौट आयी है.बाद में एक संन्यासी शिष्य स्वामी अचलानंद को उन्होंने कहा, होश संभालने के बाद कभी भी मैं चार घंटे से अधिक नहीं सो सका.
इलाज के लिए स्वामी जी, चिकित्सकों के पास गये. उनके जीते जी मेडिकल साइंस का इतना विकास और विस्तार नहीं हुआ था. इलाज के लिए स्वामी जी एलोपैथ, होम्योपैथ, देशज वैद्यों के अलावा देश-विदेश में झोलाछाप डाक्टरों या मामूली डाक्टरों के पास भी गये. वह लगातार आर्थिक तंगी में रहे. डाक्टरों को फीस देने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं होते थे. एक बार सन् 1898 में वह डाक्टर केएल दत्त के पास गये. दिखाने के बाद डाक्टर ने 40 रुपये फीस की मांग की. साथ में दवा के लिए अतिरिक्त दस रुपये. स्वामी जी को वह देना पड़ा. उन दिनों पचास रुपये की कीमत क्या थी, इसका आकलन संभव है. उनके गुरुभाइयों ने बड़ी कठिनाई से इसका बंदोबस्त किया.
घर की परेशानियों से भी स्वामी जी आजीवन व्यथित-दुखी रहे. अपनी बीमारियों से अधिक वह अपनी मां, भुवनेश्वरी देवी के लिए बेचैन और परेशान रहे. कहते हैं, जब तक पिता विश्वनाथ दत्त जीवित थे, उनके परिवार का मासिक खर्च था, लगभग एक हजार रुपये. वर्ष 1884 में उनकी मौत के बाद स्वामी जी की मां, भुवनेश्वरी देवी ने वह खर्च घटा कर तीस रुपये तक ला दिया. अचानक आयी मुसीबत और दरिद्रता के बीच भी भुवनेश्वरी देवी का असीम धैर्य अपूर्व था. इधर स्वामी जी में आजीवन मां को सुख न दे पाने की पीड़ा रही. मां, पल-पल गरीबी में समय काटती थी. उनके लिए पैसे का प्रबंध करना, स्वामी जी के लिए सबसे कठिन था. इसका एहसास भी उन्हें आजीवन रहा. एक जगह उन्होंने कहा भी है, ‘जो अपनी मां की सच में पूजा नहीं कर सकता, वह कभी भी बड़ा नहीं हो सकता.
स्वामी जी को परेशानियों की महज कल्पना या झलक सिहरन पैदा करती है, पर इनके बावजूद उन्होंने वे काम किये, जो भारत हजारों-हजार वर्ष तक याद रखेगा. इस इंसान से बढ़ कर दूसरा कौन बड़ा प्रेरक है, मानव समाज के लिए? पारिवारिक जीवन की भारी मुसीबतें, निजी जीवन में रोगों से परेशान फिर भी दूसरों के लिए, समाज के लिए, भारत माता के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देना और जीवन झोंक देना.
इससे बड़ा आदर्श चरित्र आज की युवा पीढ़ी के लिए दुनिया में कौन होगा? अनेक इतिहास नायक हुए हैं, बड़े लोग हुए है, जिनकी कुरबानियों और संघर्ष ने संसार को यहां तक पहुंचाया, पर अभावों से इस तरह गुजरते हुए इतना कुछ कर जाने वाले इंसान बहुत कम हुए हैं.
अवसर है कि जब देश, स्वामी विवेकानंद की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब घर-घर तक उनके पुरुषार्थ, संकल्प और संघर्ष की बात पहुंचे. उनके जीवन को लोग जानें, ताकि देश में एक नया मनोबल पैदा हो. खासतौर से युवाओं के बीच स्वामी जी का संदेश पहुंचना जरूरी है. उनके जीवन के मिशन और विजन’ (ध्येय और दृष्टि) से ही भारत की युवा पीढ़ी जीने का अर्थ तलाश-जान सकती है. वह एक व्यक्ति हैं, जो भारत के सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में टर्निग प्वाइंट (मोड़ देनेवाले) हैं. इतिहास अब तक सेनाएं या सम्राट मोड़ते रहे हैं, एक फकीर-संन्यासी नितांत अभावों मे जीता इंसान, गरीबी से त्रस्त, बीमारियों से घिरा, पर मुल्क का इतिहास मोड़ दिया.
रजवाड़ों में बंटे भारत में एक देश होने का भाव भरा. हजारों वर्ष से चली आ रही भारत की आध्यात्मिक एकता (भौगोलिक नहीं) को एक नयी ऊर्जा दी. वह भारतीय ताना-बाना मजबूत बना. उनके होने और काम के बाद ही भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में एक नयी चेतना का विस्तार हुआ. जब देश दास था, तब एक अकेला इंसान, विवेकानंद के रूप में खड़ा हुआ, और भारत के जगद्गुरु होने की भविष्यवाणी की. भारत की पहचान को एक नयी संज्ञा दी. आज विवेकानंद के लिए नहीं, अपने होने का मतलब-मकसद जानने के लिए उनका स्मरण जरूरी है.
आज भारत को सबसे अधिक किस चीज के जरूरत है? विवेकानंद के शब्दों में, ‘भारत को समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये. सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों मे जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रंथों के पन्नों के बाहर निकाल कर, मठों की चहारदीवारियां भेद कर, वनों की शून्यता से दूर लाकर, कुछ संप्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें. सबसे पहले हमें यही करना होगा.
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(विवेकानंद साहित्य भाग - 5, पृष्ठ 115-116)
(विवेकानंद साहित्य के मर्मज्ञों, संन्यासियों से मिली सूचनाओं-तथ्यों के आधार पर)
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साभार उद्धृत: दैनिक 'प्रभात खबर', 3 फरवरी' 2013. 
ऑनलाईन संस्करण: http://prabhatkhabar.com/node/260223 

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

पश्चिम को दोष न दें, आत्म-मूल्यांकन करें

-मंजू सिंह 


अशोक सिंघल जी का मानना है कि भारत में औरतों के साथ बलात्कार की घटनाओं के मूल में हमारे द्वारा पाश्‍चात्य संस्कृति का अपनाया जाना है. क्या यह आत्म-मूल्यांकन की बजाय दूसरे को जबरन दोषी ठहराने जैसा नहीं है? जब इंद्र ने गौतम-पत्नी अहिल्या से दुष्कर्म किया था, क्या तब ऐसा पाश्‍चात्य सभ्यता के प्रभाव से हुआ था? जब ब्रह्म ने अपनी मानस-पुत्री सरस्वती संग ऐसा ही किया था, तब पाश्‍चात्य संस्कृति दोषी थी? जब रावण ने सीता का अपहरण किया, तब पाश्‍चात्य संस्कृति का प्रभाव था? अहिल्या के साथ इंद्र ने छल किया था, लेकिन गौतम ने अहिल्या को शापित कर दिया. रावण ने सीता का अपहरण किया, लेकिन राम ने सीता को वनवास का दंड दिया. परशुराम ने अपनी मां का कत्ल कर दिया था, क्योंकि उनके पिता जमदग्नि ने कहा था कि उनकी मां व्यभिचारिणी है. हमारे यहां संस्कृत की यह उक्ति प्रचलित रही है -‘‘स्त्रियश्‍चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्य:’’. भगवद्गीता में स्त्री को पाप-योनि कहा गया है- ‘‘मां हि पार्थ व्यपार्शित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।’’

इस तरह मेरी समझ से दुष्कर्म की घटनाओं के मूल में पाश्‍चात्य संस्कृति नहीं, बल्कि वह भारतीय संस्कृति है, जिसने औरतों को कभी सम्मानित दरजा नहीं दिया. जिस देश में पीपल वृक्ष को काटने से लोग डरते हैं, जहां गो-वध के पाप के डर से लोग दुश्मनों की फौज के समक्ष हथियार डाल देते हैं, वहां औरतों से दुष्कर्म करते डरते नहीं, तो इसके लिए दोषी पाश्‍चात्य संस्कृति नहीं, वरन वह संस्कृति है, जिसमें अहिल्याओं और सीताओं को बेवजह दंड दिया जाता रहा है. हिंदू संस्कृति ने जो डर पीपल काटने और गो-वध को लेकर पैदा किया, अगर वही डर औरतों के साथ दुष्कर्म के प्रति पैदा किया जाता, तो आज ऐसी शर्मनाक घटनाएं नहीं होतीं. क्या यह हमारे धर्म-तंत्र की पोल नहीं खोल देता? मेरी स्पष्ट धारणा है कि भारत में दो संस्कृतियों का संघर्ष चलता रहा है. एक संस्कृति ब्राह्मणों की थी, जिसके पोषक थे ब्रह्म, रावण और परशुराम और दूसरी संस्कृति वैदिक मतावलंबियों की थी, जिसके पोषक थे व्यास. हमने व्यास द्वारा पोषित संस्कृति, जो वसुधैव कुटुंबकम का निर्देश देती थी, का त्याग कर ब्राह्मण संस्कृति को अपनाया. और शायद यही अनेक बुराइयों की जड. है.


साभार- दैनिक 'प्रभात खबर' दिनांक- 16 जनवरी' 2013, पेज- 15 
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पुनश्च: 
फेसबुक पर उपर्युक्त आलेख को पढ़ने के बाद श्री चन्द्रप्रकाश शर्मा जी ने जो इसके प्रत्युत्तर में जो लिखा है, वह निम्न प्रकार से है:


"देखिये ऊपरी तौर पर इस संक्षिप्त लेख की बात सही प्रतीत होती है, वो भी केवल उनके लिए जो पौराणिक तथ्यों से परिचित नहीं है !

बहुत से लोगों को ये जान कर आश्चर्य होगा कि सृष्टि के आदि काल में पिता का नहीं बल्कि माता के नाम से वंश चलता था ! संसार में केवल दो ही जातियां थी "दैत्य" और "आदित्य" ! दैत्य आसुरी प्रवृत्ति के तथा आदित्य शालीन प्रकृति के थे ! आदित्यों को देवता भी कहा जाता था ! उस काल में पितृ कुल नहीं बल्कि "मातृ-कुल" चलता था ! अर्थात स्त्री ने किस-किस के साथ संसर्ग किया है इस पर ध्यान नहीं दिया जाता था बल्कि उससे उत्पन्न संतान उस स्त्री के नाम से जानी जाती थी ! दैत्य और आदित्यों के कुल कि माताएं थीं "दिति" और "अदिति" और उन्हीं की संतानें देव और असुरों के नाम से विख्यात हुई !

जब सूर्य पुत्र मनु और उनके जामाता बुध ने अपने पैतृक राज्य वंशों की स्थापना कर ली तब उत्तर भारत "आर्यावर्त" के नाम से विख्यात हो गया और इस आर्यावर्त की समृद्धि सम्पूर्ण भारत से बढ़ चढ़ कर हो गई ! इन आर्यों में अनेक नै रीतियों का प्रचलन हुआ जिनमे मुख्या था "मातृ-कुल" के स्थान पर पितृ कुल का स्थापित होना और इससे विवाह मर्यादा दृढ़बद्धमूल हो गई और स्त्रियों के लिए पुरुष "पति" या "स्वामी" हो गये !

यह बात मैं इस लिए कह रहा हूँ कि इस लेख में कुछ पौराणिक उद्धरण दिए गए हैं और कुछ उदाहरणों से पूरे काल को कलंकित नहीं किया जा सकता ! इस देश में जितना स्त्री को मान दिया गया है उतना विश्व में कहीं नहीं दिया गया ! आज का परिदृश्य देख कर अगर ये बातें कही जाती हैं तो ये तथ्यों से परे ही है ! भारत ने एक सहस्त्र वर्षों की गुलामी सही है और इस काल में बाहरी आतताइयों द्वारा यहाँ के निवासियों पर अत्याचार किये गए और सबसे ज्यादा स्त्रियों के साथ व्यभिचार हुआ ! परिणामतः सम्पूर्ण समाज ने स्त्रियों पर अनेक पाबंदियां लगा दीं और आज हमें स्त्री का गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ ये रूप देखने को मिल रहा है ! लोगों के अवचेतन में धारणा बैठी हुई है कि पुरुष प्रधान समाज है और स्त्री को दुसरे दर्जे का समझा जाता है ! इस सबका मुख्य कारण केवल विदेशी आतताई विशेष कर "मुस्लिम" आक्रमणकारी रहे हैं जिन्होंने इस देश की स्त्री का खूब अपमान किया था और तभी से "पर्दा-प्रथा" आरम्भ हुई और लोग अपनी स्त्रियों को छुपा कर रखने लगे, बाल विवाह होने लगे !

अब आज के सन्दर्भ में देखा जाये तो अंग्रेजों के आगमन के पश्चात वर्षों से प्रतिबन्ध में रहे इस समाज में खुले पन को लेकर जिज्ञासा जागृत हुई और पाश्चात्य संस्कृति के प्रति रुझान हुआ और आज हालात सामने है ! पृकृति का नियम है की जिस चीज़ को दबा कर रखा जाता है वह कई गुना अधिक वेग से बाहर आती है ! आज समाज में यह ही हो रहा है "स्त्री-पुरुष" साड़ी मर्यादाएं तोड़ कर मौका पाते ही एक दूसरे पर टूट कर पड़ रहे हैं और परिणामतः समाज में "दुष्कर्म" हो रहे हैं ! अतः विहिप के श्री सिंघल के कथन को संकीर्ण समझना ठीक नहीं होगा !" 
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दोनों आलेखों को पढ़ने के बाद श्री राजनारायण वर्मा जी ने जो टिप्पणी की है, उसे मैं निष्कर्ष के रुप में पोस्ट में शामिल कर रहा हूँ- साभार. 
आशा है, सारी बातें स्पष्ट हो गयी हैं.- 

"मुझे तो लगता है कि एक सोची समझी चाल है इस तरह के बयानों को देकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की. ये नेता टाईप के लोग बुद्धिजीवी टाईप के लोगों की मानसिकता खूब समझते हैं. भारत एक चिंतन प्रधान देश रहा है (अब भी है) यहां चिंतन को इतना महत्व दिया गया कि आज तक शारीरिक श्रम से जीविका चलाने वालों को कमतर माना जाता है. चिंतन के साथ यहां शास्त्रार्थ की भी परम्परा रही है. जब चिंतन इतना अधिक हो कि मारे चिंतन के अपच होने लगे तो उसे किसी न किसी बहाने वमन करना ही है. इसी मानसिकता को अच्छी तरह समझते होने के कारण य्ह नेता टाईप के लोग ऐसा बयान दे देते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग उबल पड़े और मूल मुद्दा छोड़ कर इस पर ताल ठोक कर उतर आये कि आप ग़लत हैं. एक बुद्धिजीवी यह कहे कि नेता जी गलत कह रहे हैं और और उन्हे ग़लत सिद्ध करने को पुरातन साक्ष्य भी हैं. वह छांट-छांट कर ग्रन्थों से केवल वही साक्ष्य देता है जो उसकी बात का समर्थन करे. अब एक बुद्धिजीवी खेमा मार विद्वता झाड़े जा रहा है तो दूसरा बुद्धिजीवी कैसे चूक जाय. अब मुद्दा गया भाड़ मे, दूसरा खेमा खम ठोक कर उतर पड़ता है कि कुछ अंशों तक तो आप सही कह रहे है किन्तु यह अर्धसत्य है, पूर्ण नही. 

हमारे शास्त्र तो भरे पड़े हैं परस्पर विरोधी अवधारणाओं से. यहां तो विपरीत मत को सदा ही समान दिया गया है कि शास्त्रार्थ चलता रहे. यहां तो शैव हैं तो वैष्णव भी, साकार मत के हैं तो निराकार मत के भी, द्वैत है तो अद्वैत भी, चार्वाक् और नास्तिकता को भी पूर्ण सम्मान से स्वीकारा गया है… तो भईया ! दूसरा खम ठोक कर कहता है कि देखिये अलां शास्त्र तो यह कहता है तो फलां शास्त्र वह. 

एक शोशा उछाल दे कि यह सब पाश्चात्य संस्कृति के कारण है तो बलात्कार पीड़ित की व्यथा, बलात्कारी को दण्ड और आगे इस पर कैसे रोक लगे, लोगों की मानसिकता कैसे बदले… आदि, इत्यादि को दरकिनार करके शास्त्रों से उदाहरण देकर सिद्ध करे कि हमे बलात्कार की प्रेरणा के लिये पाश्चात्य संस्कृति की ओर देखने की आवश्यकता नही… हमारे महापूर्वज ब्रह्मा, इन्द्र आदि बलात्कार कर चुके हैं तो रावण, जमग्दनि, परशुराम, गुरुपत्निगामी चन्द्र आदि हैं, बलात्कार और नारी को भोग्या, हीन समझने के बीज तो वैदिक काल से हैं – क्या ज़रूरत पश्चिम से प्रेरणा लेने की. अब दूसरा खेमा कहे कि नही हमारे यहां तो प्रारम्भ से ही मातृ सत्ता रही है. नारी को सम्मान तो हम सदा से देते रहे हैं. वह तो मुसलमानों व अंग्रेजों ने यह सब फैलाया. यहां तो तीसरा खेमा नही कूदा मगर मुसलमानों के झण्डाबरदार कूद सकते हैं कि हम नही ऐसे हैं…. देख लो, कुरान कि अलां सूरा की फलां आयत मे नारी को कितना सम्मान देने की बात कही गई है. अब शासन- प्रशासन दूर खड़ा हँस रहा कि देखा ! कैसा बेवकूफ बनाया ! अब यह इसी पर शास्त्रार्थ करते रहेंगे कि यह है किस संस्कृति के कारण ! भई, बलात्कार पीड़ित को न्याय, उसका और अपमान न करना, रोकथाम के उपाय आदि तो फिर कर लेंगे… पहले यह तय हो कि यह किस संस्कृति के कारण है.


इस साईट पर , तमाम और साईट्स पर व देश भर मे मुद्दों को इसी तरह भटकाया जा रहा है. भाई यह पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हो या प्राचीन भारतीय संस्कृति से या मुसलमानों के कारण या कपड़ों, मोबाईल्स, मॉल्स, जीन्स आदि के कारण… किसी भी कारण से हो--- कारण तय हो जाने से कोई खेमा शास्त्रार्थ मे तो विजयी हो जायेगा किन्तु उससे क्या वह मानसिकता बदलेगी जो नारी को हीन, भोग्या और मानव नही, वस्तु समझती है ? ठीक है, यह इसके असर मे हो रहा हो या उसके--- हम क्या कर रहे हैं ---- केवल शास्त्रार्थ, बुद्धि विलास. लेख लिखने वाला यही कर रहा है, उसे प्रस्तुत करने वाला भी, टिप्पणीकार भी, प्रतिटिप्पणी करने वाला भी और मै भी ! 


साधों ! किसके असर मे हुआ, यह सिद्ध करने के बजाय अपने आस-पास के लोगों की मानसिकता बदलो, अपने ही साथ काम करने वाली या पड़ोस मे रहने वाली लड़की के बारे मे चटखारे लेकर बात न करो और न करने दो. शास्त्रार्थ के मुकाबले है तो यह बहुत छोटा काम किन्तु कारगर शास्त्रार्थ नही, ऐसे ही छोटे-छोटे कदम होंगे."
- राज नारायण 

--: प्रकरण समाप्त:--