गुरुवार, 28 मार्च 2013

भारतीय न्याय-प्रणाली (भाग- 1)



       मचांग लालूंग को 54 सालों तक असम की एक जेल में रहना पड़ा। दुर्भाग्य देखिये, कोर्ट में उसके मामले की सुनवाई एक बार भी नहीं हुई।
       दूसरे किस्से भी हैं।
       रामजन्मभूमि विवाद पर 60 साल बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट से फैसला आया था। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है।
       भोपाल गैस काण्ड में फैसला 26 साल बाद सुनाया गया। पूरा देश इस फैसले से असंतुष्ट है।
       पूर्व भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण कैमरे के सामने रुपये लेते पकड़े गये, तो तो 11 साल लग गये दोष साबित करने में। अभी मामला सुप्रीम कोर्ट जा सकता है।
       बिहार चारा घोटाले का अपना इतिहास है। दो दशक पुराना यह मामला अभी पूरी तरह रफा-दफा नहीं हुआ है।
       अभी जेलों में तीन लाख कैदी इसलिए बन्द हैं, क्योंकि उनके मुकदमे का फैसला नहीं हुआ है।
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       मेरठ कचहरी में सबसे पुराने मुकदमे में सिविल जज जूनियर डिवीजन स्नेहलता ने फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया। इस मुकदमे में 48 साल के बाद फैसला आया है।
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       भारत के पूर्व महान्यायवादी सोली सोराबजी ने अपने एक भाषण में कहा था, "न्याय में देरी के कारण भारत की न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने की कगार पर है। न्याय में देरी होने का मतलब केवल न्याय न मिलना ही नहीं है, वरन इसका यह मतलब भी है कि कानून का शासन खत्म हो रहा है। 60 प्रतिशत से ज्यादा मामले अदालतों में राज्य के एक्शन या इन-एक्शन के कारण कटके हुए हैं। क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकार की कोई न कोई एजेन्सी अपना काम न्यायपूर्ण तरीके से करने में नाकाम रही है।"
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       मुकदमों की बढ़ती संख्या से अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी 10 वर्ष में देश में 10 लाख जजों की आवश्यकता होगी। फिलहाल देश में 65,000 अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15,000 न्यायालय भी नहीं हैं।
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       गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति के अनुसार (2001) विधि आयोगों की प्रायः 50 रिपोर्ट कार्यान्वयन की प्रतीक्षा में है।
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       यह कहा जाता है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 0.2 प्रतिशत ही न्याय तंत्र पर खर्च करता है। प्रथम राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग के अनुसार, एक को छोड़कर सभी राज्यों ने न्याय तंत्र के लिए अपने सम्बन्धित बजट का 1 प्रतिशत से भी कम उपलब्ध कराया है, जो अधिक संख्या में लम्बित मामलों से पीड़ित हैं। आखिर सरकार की ऐसी उदासीनता से क्या उम्मीद की जा सकती है। कई जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि जो लोग सरकार में बैठे हैं, वे नहीं चाहते कि न्यायिक प्रक्रिया में सुधार हो, क्योंकि यदि ऐसा होता है, तो उनकी पोल खुलेगी। वे बार-बार लपेटे में आयेंगे। इससे उनकी मुश्किलें बढ़ जायेंगी।
       बहरहाल, वर्तमान सच यह है कि लेट-लतीफ न्याय-प्रणाली देश की जनता का विश्वास खो रही है। इससे समाज के असामाजिक तत्वों का मनोबल बढ़ा है। इससे देश आबो-हवा बिगड़ी है। समय रहते इसे नहीं सम्भाला गया, तो स्थिति हाथ से बाहर जा सकती है।
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       (साभार: समाचार-विचार पाक्षिक "प्रथम प्रवक्ता", नोएडा, उप्र, अंक- 1-15 फरवरी 2013, आलेख- 'कोर्ट में सब होल्ड', लेखक- सतीश पेडणेकर)