शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

पश्चिम को दोष न दें, आत्म-मूल्यांकन करें

-मंजू सिंह 


अशोक सिंघल जी का मानना है कि भारत में औरतों के साथ बलात्कार की घटनाओं के मूल में हमारे द्वारा पाश्‍चात्य संस्कृति का अपनाया जाना है. क्या यह आत्म-मूल्यांकन की बजाय दूसरे को जबरन दोषी ठहराने जैसा नहीं है? जब इंद्र ने गौतम-पत्नी अहिल्या से दुष्कर्म किया था, क्या तब ऐसा पाश्‍चात्य सभ्यता के प्रभाव से हुआ था? जब ब्रह्म ने अपनी मानस-पुत्री सरस्वती संग ऐसा ही किया था, तब पाश्‍चात्य संस्कृति दोषी थी? जब रावण ने सीता का अपहरण किया, तब पाश्‍चात्य संस्कृति का प्रभाव था? अहिल्या के साथ इंद्र ने छल किया था, लेकिन गौतम ने अहिल्या को शापित कर दिया. रावण ने सीता का अपहरण किया, लेकिन राम ने सीता को वनवास का दंड दिया. परशुराम ने अपनी मां का कत्ल कर दिया था, क्योंकि उनके पिता जमदग्नि ने कहा था कि उनकी मां व्यभिचारिणी है. हमारे यहां संस्कृत की यह उक्ति प्रचलित रही है -‘‘स्त्रियश्‍चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्य:’’. भगवद्गीता में स्त्री को पाप-योनि कहा गया है- ‘‘मां हि पार्थ व्यपार्शित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।’’

इस तरह मेरी समझ से दुष्कर्म की घटनाओं के मूल में पाश्‍चात्य संस्कृति नहीं, बल्कि वह भारतीय संस्कृति है, जिसने औरतों को कभी सम्मानित दरजा नहीं दिया. जिस देश में पीपल वृक्ष को काटने से लोग डरते हैं, जहां गो-वध के पाप के डर से लोग दुश्मनों की फौज के समक्ष हथियार डाल देते हैं, वहां औरतों से दुष्कर्म करते डरते नहीं, तो इसके लिए दोषी पाश्‍चात्य संस्कृति नहीं, वरन वह संस्कृति है, जिसमें अहिल्याओं और सीताओं को बेवजह दंड दिया जाता रहा है. हिंदू संस्कृति ने जो डर पीपल काटने और गो-वध को लेकर पैदा किया, अगर वही डर औरतों के साथ दुष्कर्म के प्रति पैदा किया जाता, तो आज ऐसी शर्मनाक घटनाएं नहीं होतीं. क्या यह हमारे धर्म-तंत्र की पोल नहीं खोल देता? मेरी स्पष्ट धारणा है कि भारत में दो संस्कृतियों का संघर्ष चलता रहा है. एक संस्कृति ब्राह्मणों की थी, जिसके पोषक थे ब्रह्म, रावण और परशुराम और दूसरी संस्कृति वैदिक मतावलंबियों की थी, जिसके पोषक थे व्यास. हमने व्यास द्वारा पोषित संस्कृति, जो वसुधैव कुटुंबकम का निर्देश देती थी, का त्याग कर ब्राह्मण संस्कृति को अपनाया. और शायद यही अनेक बुराइयों की जड. है.


साभार- दैनिक 'प्रभात खबर' दिनांक- 16 जनवरी' 2013, पेज- 15 
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पुनश्च: 
फेसबुक पर उपर्युक्त आलेख को पढ़ने के बाद श्री चन्द्रप्रकाश शर्मा जी ने जो इसके प्रत्युत्तर में जो लिखा है, वह निम्न प्रकार से है:


"देखिये ऊपरी तौर पर इस संक्षिप्त लेख की बात सही प्रतीत होती है, वो भी केवल उनके लिए जो पौराणिक तथ्यों से परिचित नहीं है !

बहुत से लोगों को ये जान कर आश्चर्य होगा कि सृष्टि के आदि काल में पिता का नहीं बल्कि माता के नाम से वंश चलता था ! संसार में केवल दो ही जातियां थी "दैत्य" और "आदित्य" ! दैत्य आसुरी प्रवृत्ति के तथा आदित्य शालीन प्रकृति के थे ! आदित्यों को देवता भी कहा जाता था ! उस काल में पितृ कुल नहीं बल्कि "मातृ-कुल" चलता था ! अर्थात स्त्री ने किस-किस के साथ संसर्ग किया है इस पर ध्यान नहीं दिया जाता था बल्कि उससे उत्पन्न संतान उस स्त्री के नाम से जानी जाती थी ! दैत्य और आदित्यों के कुल कि माताएं थीं "दिति" और "अदिति" और उन्हीं की संतानें देव और असुरों के नाम से विख्यात हुई !

जब सूर्य पुत्र मनु और उनके जामाता बुध ने अपने पैतृक राज्य वंशों की स्थापना कर ली तब उत्तर भारत "आर्यावर्त" के नाम से विख्यात हो गया और इस आर्यावर्त की समृद्धि सम्पूर्ण भारत से बढ़ चढ़ कर हो गई ! इन आर्यों में अनेक नै रीतियों का प्रचलन हुआ जिनमे मुख्या था "मातृ-कुल" के स्थान पर पितृ कुल का स्थापित होना और इससे विवाह मर्यादा दृढ़बद्धमूल हो गई और स्त्रियों के लिए पुरुष "पति" या "स्वामी" हो गये !

यह बात मैं इस लिए कह रहा हूँ कि इस लेख में कुछ पौराणिक उद्धरण दिए गए हैं और कुछ उदाहरणों से पूरे काल को कलंकित नहीं किया जा सकता ! इस देश में जितना स्त्री को मान दिया गया है उतना विश्व में कहीं नहीं दिया गया ! आज का परिदृश्य देख कर अगर ये बातें कही जाती हैं तो ये तथ्यों से परे ही है ! भारत ने एक सहस्त्र वर्षों की गुलामी सही है और इस काल में बाहरी आतताइयों द्वारा यहाँ के निवासियों पर अत्याचार किये गए और सबसे ज्यादा स्त्रियों के साथ व्यभिचार हुआ ! परिणामतः सम्पूर्ण समाज ने स्त्रियों पर अनेक पाबंदियां लगा दीं और आज हमें स्त्री का गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ ये रूप देखने को मिल रहा है ! लोगों के अवचेतन में धारणा बैठी हुई है कि पुरुष प्रधान समाज है और स्त्री को दुसरे दर्जे का समझा जाता है ! इस सबका मुख्य कारण केवल विदेशी आतताई विशेष कर "मुस्लिम" आक्रमणकारी रहे हैं जिन्होंने इस देश की स्त्री का खूब अपमान किया था और तभी से "पर्दा-प्रथा" आरम्भ हुई और लोग अपनी स्त्रियों को छुपा कर रखने लगे, बाल विवाह होने लगे !

अब आज के सन्दर्भ में देखा जाये तो अंग्रेजों के आगमन के पश्चात वर्षों से प्रतिबन्ध में रहे इस समाज में खुले पन को लेकर जिज्ञासा जागृत हुई और पाश्चात्य संस्कृति के प्रति रुझान हुआ और आज हालात सामने है ! पृकृति का नियम है की जिस चीज़ को दबा कर रखा जाता है वह कई गुना अधिक वेग से बाहर आती है ! आज समाज में यह ही हो रहा है "स्त्री-पुरुष" साड़ी मर्यादाएं तोड़ कर मौका पाते ही एक दूसरे पर टूट कर पड़ रहे हैं और परिणामतः समाज में "दुष्कर्म" हो रहे हैं ! अतः विहिप के श्री सिंघल के कथन को संकीर्ण समझना ठीक नहीं होगा !" 
*** 

दोनों आलेखों को पढ़ने के बाद श्री राजनारायण वर्मा जी ने जो टिप्पणी की है, उसे मैं निष्कर्ष के रुप में पोस्ट में शामिल कर रहा हूँ- साभार. 
आशा है, सारी बातें स्पष्ट हो गयी हैं.- 

"मुझे तो लगता है कि एक सोची समझी चाल है इस तरह के बयानों को देकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की. ये नेता टाईप के लोग बुद्धिजीवी टाईप के लोगों की मानसिकता खूब समझते हैं. भारत एक चिंतन प्रधान देश रहा है (अब भी है) यहां चिंतन को इतना महत्व दिया गया कि आज तक शारीरिक श्रम से जीविका चलाने वालों को कमतर माना जाता है. चिंतन के साथ यहां शास्त्रार्थ की भी परम्परा रही है. जब चिंतन इतना अधिक हो कि मारे चिंतन के अपच होने लगे तो उसे किसी न किसी बहाने वमन करना ही है. इसी मानसिकता को अच्छी तरह समझते होने के कारण य्ह नेता टाईप के लोग ऐसा बयान दे देते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग उबल पड़े और मूल मुद्दा छोड़ कर इस पर ताल ठोक कर उतर आये कि आप ग़लत हैं. एक बुद्धिजीवी यह कहे कि नेता जी गलत कह रहे हैं और और उन्हे ग़लत सिद्ध करने को पुरातन साक्ष्य भी हैं. वह छांट-छांट कर ग्रन्थों से केवल वही साक्ष्य देता है जो उसकी बात का समर्थन करे. अब एक बुद्धिजीवी खेमा मार विद्वता झाड़े जा रहा है तो दूसरा बुद्धिजीवी कैसे चूक जाय. अब मुद्दा गया भाड़ मे, दूसरा खेमा खम ठोक कर उतर पड़ता है कि कुछ अंशों तक तो आप सही कह रहे है किन्तु यह अर्धसत्य है, पूर्ण नही. 

हमारे शास्त्र तो भरे पड़े हैं परस्पर विरोधी अवधारणाओं से. यहां तो विपरीत मत को सदा ही समान दिया गया है कि शास्त्रार्थ चलता रहे. यहां तो शैव हैं तो वैष्णव भी, साकार मत के हैं तो निराकार मत के भी, द्वैत है तो अद्वैत भी, चार्वाक् और नास्तिकता को भी पूर्ण सम्मान से स्वीकारा गया है… तो भईया ! दूसरा खम ठोक कर कहता है कि देखिये अलां शास्त्र तो यह कहता है तो फलां शास्त्र वह. 

एक शोशा उछाल दे कि यह सब पाश्चात्य संस्कृति के कारण है तो बलात्कार पीड़ित की व्यथा, बलात्कारी को दण्ड और आगे इस पर कैसे रोक लगे, लोगों की मानसिकता कैसे बदले… आदि, इत्यादि को दरकिनार करके शास्त्रों से उदाहरण देकर सिद्ध करे कि हमे बलात्कार की प्रेरणा के लिये पाश्चात्य संस्कृति की ओर देखने की आवश्यकता नही… हमारे महापूर्वज ब्रह्मा, इन्द्र आदि बलात्कार कर चुके हैं तो रावण, जमग्दनि, परशुराम, गुरुपत्निगामी चन्द्र आदि हैं, बलात्कार और नारी को भोग्या, हीन समझने के बीज तो वैदिक काल से हैं – क्या ज़रूरत पश्चिम से प्रेरणा लेने की. अब दूसरा खेमा कहे कि नही हमारे यहां तो प्रारम्भ से ही मातृ सत्ता रही है. नारी को सम्मान तो हम सदा से देते रहे हैं. वह तो मुसलमानों व अंग्रेजों ने यह सब फैलाया. यहां तो तीसरा खेमा नही कूदा मगर मुसलमानों के झण्डाबरदार कूद सकते हैं कि हम नही ऐसे हैं…. देख लो, कुरान कि अलां सूरा की फलां आयत मे नारी को कितना सम्मान देने की बात कही गई है. अब शासन- प्रशासन दूर खड़ा हँस रहा कि देखा ! कैसा बेवकूफ बनाया ! अब यह इसी पर शास्त्रार्थ करते रहेंगे कि यह है किस संस्कृति के कारण ! भई, बलात्कार पीड़ित को न्याय, उसका और अपमान न करना, रोकथाम के उपाय आदि तो फिर कर लेंगे… पहले यह तय हो कि यह किस संस्कृति के कारण है.


इस साईट पर , तमाम और साईट्स पर व देश भर मे मुद्दों को इसी तरह भटकाया जा रहा है. भाई यह पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हो या प्राचीन भारतीय संस्कृति से या मुसलमानों के कारण या कपड़ों, मोबाईल्स, मॉल्स, जीन्स आदि के कारण… किसी भी कारण से हो--- कारण तय हो जाने से कोई खेमा शास्त्रार्थ मे तो विजयी हो जायेगा किन्तु उससे क्या वह मानसिकता बदलेगी जो नारी को हीन, भोग्या और मानव नही, वस्तु समझती है ? ठीक है, यह इसके असर मे हो रहा हो या उसके--- हम क्या कर रहे हैं ---- केवल शास्त्रार्थ, बुद्धि विलास. लेख लिखने वाला यही कर रहा है, उसे प्रस्तुत करने वाला भी, टिप्पणीकार भी, प्रतिटिप्पणी करने वाला भी और मै भी ! 


साधों ! किसके असर मे हुआ, यह सिद्ध करने के बजाय अपने आस-पास के लोगों की मानसिकता बदलो, अपने ही साथ काम करने वाली या पड़ोस मे रहने वाली लड़की के बारे मे चटखारे लेकर बात न करो और न करने दो. शास्त्रार्थ के मुकाबले है तो यह बहुत छोटा काम किन्तु कारगर शास्त्रार्थ नही, ऐसे ही छोटे-छोटे कदम होंगे."
- राज नारायण 

--: प्रकरण समाप्त:--

1 टिप्पणी:

  1. मुझे तो लगता है कि एक सोची समझी चाल है इस तरह के बयानों को देकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की. ये नेता टाईप के लोग बुद्धिजीवी टाईप के लोगों की मानसिकता खूब समझते हैं. भारत एक चिंतन प्रधान देश रहा है (अब भी है) यहां चिंतन को इतना महत्व दिया गया कि आज तक शारीरिक श्रम से जीविका चलाने वालों को कमतर माना जाता है. चिंतन के साथ यहां शास्त्रार्थ की भी परम्परा रही है. जब चिंतन इतना अधिक हो कि मारे चिंतन के अपच होने लगे तो उसे किसी न किसी बहाने वमन करना ही है. इसी मानसिकता को अच्छी तरह समझते होने के कारण य्ह नेता टाईप के लोग ऐसा बयान दे देते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग उबल पड़े और मूल मुद्दा छोड़ कर इस पर ताल ठोक कर उतर आये कि आप ग़लत हैं. एक बुद्धिजीवी यह कहे कि नेता जी गलत कह रहे हैं और और उन्हे ग़लत सिद्ध करने को पुरातन साक्ष्य भी हैं. वह छांट-छांट कर ग्रन्थों से केवल वही साक्ष्य देता है जो उसकी बात का समर्थन करे. अब एक बुद्धिजीवी खेमा मार विद्वता झाड़े जा रहा है तो दूसरा बुद्धिजीवी कैसे चूक जाय. अब मुद्दा गया भाड़ मे, दूसरा खेमा खम ठोक कर उतर पड़ता है कि कुछ अंशों तक तो आप सही कह रहे है किन्तु यह अर्धसत्य है, पूर्ण नही. हमारे शास्त्र तो भरे पड़े हैं परस्पर विरोधी अवधारणाओं से. यहां तो विपरीत मत को सदा ही समान दिया गया है कि शास्त्रार्थ चलता रहे. यहां तो शैव हैं तो वैष्णव भी, साकार मत के हैं तो निराकार मत के भी, द्वैत है तो अद्वैत भी, चार्वाक् और नास्तिकता को भी पूर्ण सम्मान से स्वीकारा गया है… तो भईया ! दूसरा खम ठोक कर कहता है कि देखिये अलां शास्त्र तो यह कहता है तो फलां शास्त्र वह. एक शोशा उछाल दे कि यह सब पाश्चात्य संस्कृति के कारण है तो बलात्कार पीड़ित की व्यथा, बलात्कारी को दण्ड और आगे इस पर कैसे रोक लगे, लोगों की मानसिकता कैसे बदले… आदि, इत्यादि को दरकिनार करके शास्त्रों से उदाहरण देकर सिद्ध करे कि हमे बलात्कार की प्रेरणा के लिये पाश्चात्य संस्कृति की ओर देखने की आवश्यकता नही… हमारे महापूर्वज ब्रह्मा, इन्द्र आदि बलात्कार कर चुके हैं तो रावण, जमग्दनि, परशुराम, गुरुपत्निगामी चन्द्र आदि हैं, बलात्कार और नारी को भोग्या, हीन समझने के बीज तो वैदिक काल से हैं – क्या ज़रूरत पश्चिम से प्रेरणा लेने की. अब दूसरा खेमा कहे कि नही हमारे यहां तो प्रारम्भ से ही मातृ सत्ता रही है. नारी को सम्मान तो हम सदा से देते रहे हैं. वह तो मुसलमानों व अंग्रेजों ने यह सब फैलाया. यहां तो तीसरा खेमा नही कूदा मगर मुसलमानों के झण्डाबरदार कूद सकते हैं कि हम नही ऐसे हैं…. देख लो, कुरान कि अलां सूरा की फलां आयत मे नारी को कितना सम्मान देने की बात कही गई है. अब शासन- प्रशासन दूर खड़ा हँस रहा कि देखा ! कैसा बेवकूफ बनाया ! अब यह इसी पर शास्त्रार्थ करते रहेंगे कि यह है किस संस्कृति के कारण ! भई, बलात्कार पीड़ित को न्याय, उसका और अपमान न करना, रोकथाम के उपाय आदि तो फिर कर लेंगे… पहले यह तय हो कि यह किस संस्कृति के कारण है.
    इस साईट पर , तमाम और साईट्स पर व देश भर मे मुद्दों को इसी तरह भटकाया जा रहा है. भाई यह पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हो या प्राचीन भारतीय संस्कृति से या मुसलमानों के कारण या कपड़ों, मोबाईल्स, मॉल्स, जीन्स आदि के कारण… किसी भी कारण से हो--- कारण तय हो जाने से कोई खेमा शास्त्रार्थ मे तो विजयी हो जायेगा किन्तु उससे क्या वह मानसिकता बदलेगी जो नारी को हीन, भोग्या और मानव नही, वस्तु समझती है ? ठीक है, यह इसके असर मे हो रहा हो या उसके--- हम क्या कर रहे हैं ---- केवल शास्त्रार्थ, बुद्धि विलास. लेख लिखने वाला यही कर रहा है, उसे प्रस्तुत करने वाला भी, टिप्पणीकार भी, प्रतिटिप्पणी करने वाला भी और मै भी !
    साधों ! किसके असर मे हुआ, यह सिद्ध करने के बजाय अपने आस-पास के लोगों की मानसिकता बदलो, अपने ही साथ काम करने वाली या पड़ोस मे रहने वाली लड़की के बारे मे चटखारे लेकर बात न करो और न करने दो. शास्त्रार्थ के मुकाबले है तो यह बहुत छोटा काम किन्तु कारगर शास्त्रार्थ नही, ऐसे ही छोटे-छोटे कदम होंगे.
    राज नारायण

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