शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

नागार्जुन की कविता- 4 / पुलिस आगे बढ़ी ...

चंदन का चर्खा निछावर है इस्पाती बुलेट पर
निछावर है अगरबत्ती चुरुट पर, सिग्रेट पर
नफाखोर हंसता है सरकारी रेट पर
फ्लाई करो दिन-रात, लात मारो पब्लिक के पेट पर

पुलिस आगे बढ़ी-
क्रांति को संपूर्ण बनाएगी
गुमसुम है फौज-
वो भी क्या आजादी मनाएगी
बंध गई घिग्घी-
माथे पर दर्द हुआ
नंगे हुए इनके वायदे-
नाटक बे-पर्द हुआ!

मिनिस्टर तो फूकेंगे अंधाधुंध रकम
सुना करेगी अवाम बक-बक-बकम
वतन चुकाएगा जहालत की फीस
इन पर तो फबेगी खादी नफीस

धंधा पालिटिक्स का सबसे चोखा है
बाकी ति ठगैती है, बाकी तो धोखा है
कंधों पर जो चढ़ा वो ही अनोखा है
हमने कबीर का पद ही तो धोखा है.
 (1978)
("जनसत्ता" (रविवारी), 9 अगस्त 1998 से साभार) 

3 टिप्‍पणियां:

  1. फेसबुक से साभार


    Ravinder Singh जी की पोस्ट:
    13 जुलाई 2014

    मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
    पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है
    फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
    फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
    महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
    ग़रीबों की बस्‍ती में उखाड़ है, पछाड़ है
    धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्‍छों नहीं! कुच्‍छों नहीं
    ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
    ताड़ के पत्‍ते हैं, पत्‍तों के पंखे हैं
    पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
    कुच्‍छों नहीं, कुच्‍छों नहीं...
    ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
    पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
    किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है!
    कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है!
    सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्‍त है
    मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्‍त है
    उसी की है जनवरी, उसी का अगस्‍त है...

    नागार्जुन

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