शक्ति-पूजन का अर्थ
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-शंकर
शरण
प्र ति वर्ष शरद ऋतु में
करोड़ों हिंदू दुर्गा पूजा मनाते हैं. इसे शक्ति-पूजन भी कहा
जाता है. स्वयं भगवान राम को राक्षसों पर विजय पाने के लिए शक्ति-पूजा
की आवश्यकता हुई थी. कवि निराला ने अपनी अद्भुत रचना ‘राम की शक्तिपूजा’ में उस घटना को जीवंत बना दिया है. क्या भारत के हिंदू वही शक्ति-पूजा करते हैं?
आज अधिकांश भारतीय बच्चों को घर और स्कूल, सब जगह अच्छा बच्चा बनने की सीख मिलती है. इसका अर्थ
प्राय: यही होता है कि पढ़ो-लिखो, लड़ाई-झगड़े
में न पड़ो. यदि कोई झगड़ा हो रहा हो, तो आंखें फेर लो. किसी दुर्बल को कोई उद्दंड सताता हो, तो वहां
से हट जाओ. तुम्हें भी कोई अपमानित करे, तो चुप
रहो. क्योंकि तुम अच्छे बच्चे हो, जिसे पढ.-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बनना
है. इसलिए बदमाश से क्या उलझना! उसमें समय नष्ट
होगा. इस प्रकार, सामाजिक कायरता का पाठ अधिकांश को बचपन से ही सिखाया जाता है. ऐसे बच्चे दुर्गा पूजा करके भी
नहीं करते!
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उन्हें
कभी नहीं बताया जाता कि दैवी अवतारों तक को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेनी
पड़ती थी. क्योंकि दुष्टों से रक्षा के लिए शक्ति-संधान अनिवार्य है. अपनी, अपने
परिवार और साधुजनों की रक्षा के लिए यह एक अपरिहार्य कर्तव्य भी है. इस
प्रकार,
वर्तमान भारत में हिंदू बच्चों को सच्ची शक्ति-पूजा
से बचा कर रखा जाता है!
इससे
उनका व्यक्तित्व दुर्बल होता है. यह कठोर सत्य
है कि किसी समाज के लोगों के व्यक्तित्व की आम दुर्बलता अंतत: मानसिक और
सामाजिक दुर्बलता में बदल जाती है.
अच्छे
बच्चे की समझ गलत :
जो लोग
कोई सुफल न पाकर राजनीति को रोते हैं, स्वयं को कभी दोष नहीं देते कि अच्छे
बच्चे की उनकी समझ ही गलत है. उन्होंने अच्छे बच्चे को दब्बू बच्चे का पर्याय
बना दिया, जिससे बिगड़ैल और शह पाते हैं. यह प्रकिया सौ
साल से अहर्निश चल रही है. शक्ति-पूजा भुलाई जा चुकी
है. यही सारी समस्याओं की जड़ है.
आज
नहीं तो कल, हम
सबको यह शिक्षा लेनी पड़ेगी कि अच्छे बच्चे को बलवान और चरित्रवान भी होना
चाहिए. आत्मरक्षा के लिए परमुखापेक्षी होना गलत है. मामूली धौंसपट्टी या
गुंडे-बदमाशों तक से निबटने के लिए सदैव पुलिस या
प्रशासन के भरोसे रहना न व्यावहारिक है, न सम्मानजनक, न
हमारी शास्त्रीय परंपरा. अपमानित होकर जीना, मरने
से बदतर है. दुष्टता को सहना या आंखें
चुराना दुष्टता को प्रोत्साहन है. रामायण और महाभारत ही नहीं, यूरोपीय
चिंतन में भी यही शिक्षा है. हाल तक यूरोप में द्वंद्व-युद्ध की परंपरा
थी, जिसमें
किसी से अपमानित होने पर हर व्यक्ति से आशा की जाती थी कि वह
उसे द्वंद्व की चुनौती देगा. चाहे उसमें उस की मृत्यु ही क्यों न हो जाये.
हमने
देवताओं को निराश किया :
कश्मीर
के विस्थापित कवि डॉ कुंदनलाल चौधरी ने अपने कविता संग्रह ‘ऑफ गॉड, मेन एंड
मिलिटेंट्स’ की भूमिका
में प्रश्न रखा था- ‘‘क्या हमारे देवताओं ने हमें निराश किया या हमने
अपने देवताओं को?’’ इसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों में चल रहे मंथन के रूप
में रखा था. वस्तुत: यह प्रश्न संपूर्ण भारत के लिए है. इसका एक ही उत्तर
है कि हमने देवताओं को निराश किया. उन्होंने तो विद्या की देवी को भी शस्त्र-सज्जित
रखा था और हमने शक्ति की देवी को भी मिट्टी की मूरत में बदल कर रख
दिया. चीख-चीख कर रतजगा करना पूजा नहीं है. पूजा है, किसी
संकल्प के लिए शक्ति-आराधन करना. सम्मान से जीने के लिए
मृत्यु का वरण करने के लिए भी तत्पर होना.
कायर की तरह चमड़ी बचा कर नहीं, बल्कि दुष्टता की आंखों
में आंखें डाल कर जीने की रीति बनाना. यही
शक्ति-पूजा है, जिसे हम भारत के लोग भुला
बैठे हैं. अभी समय है कि हमारे बुद्धिजीवी अपनी भीरु ता को
चतुराई या ‘व्यावहारिकता’ समझने की
चतुराई से मुक्त हों. अन्यथा कल उनकी अभिव्यक्ति की जमीन
और भी संकुचित होती जायेगी.
(एक लंबे
लेख के संपादित अंश. ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(साभार: ‘प्रभात खबर’ का
ईपेपर संस्करण :
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=1&queryed=9&eddate=10/23/2012%2012:00:00%20AM)
कलकत्ता की दुर्गा पूजा - ब्लॉग बुलेटिन पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को दुर्गा पूजा की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें ! आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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