इस समय हमारी
जनसंख्या और जजों का जो अनुपात है, वह काफी कम है। करीब दस लाख पर 12 जज हैं। यह
अनुपात मजिस्ट्रेट से लेकर मुख्य न्यायाधीश तक का है। अगर देखा जाय, तो औसतन
प्रत्येक जिले में 20 अपराध रोज होते हैं। पर इनको निपटाने के समुचित साधन नहीं
हैं।
कानूनी प्रक्रिया इतनी बड़ी और लम्बी होती है, कि
कोई एक दिन में अपराध तय नहीं हो पाता।
जिस अनुपात में
अपराध बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए हमारे पास न तो न्यायाधीश हैं, न ही न्यायालय।
अपराधियों को इस
बात का डर ही नहीं है कि उन्हें सजा मिल सकती है। वे बेखौफ होकर अपराध कर रहे हैं।
1967 में 80 फीसद मामलों में फैसले होते थे। आज
कन्विक्शन दर 16 से 18 फीसद रह गया है। वह भी छोटे-मोटे मामले में।
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दुःख की बात है कि कानून व्यवस्था ठीक हो, इसके
लिए सरकार के पास पूँजी नहीं है, लेकिन बेवजह पैसे खर्च करने के लिए उसके पास
पूँजी है। समाज को व्यवस्थित और नयी दिशा देने की, महिलाओं के प्रति सम्मान कायम
रहे इत्यादि बातों की चिन्ता इन्हें नहीं है।
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आज देश में विभिन्न मुद्दों पर प्रदर्शन हो रहे
हैं। पर न्याय प्रक्रिया में सुधार के लिए कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होता है; न तो
कहीं से कोई माँग उठती है। आज अपराधी राजनीति में घुसे हुए हैं। नौकरशाह भी
आपराधिक मामलों में संलिप्त हैं। वे सभी फायदे में हैं। ऐसे में, उन्हें क्या
जरुरत पड़ी है इसे सुधारने की! उनके लिए तो न्यायालय ही खत्म हो जाय, वही अच्छा
रहेगा।
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लोगों में एक तरह का भ्रम पैदा किया गया है कि
न्याय प्रक्रिया पेचीदा और जटिल है, इसलिए फैसले आने में देरी होती है। पर यह
प्रक्रिया बिलकुल सीधी है। इसे तो पेचीदा बनाया गया है। यह वही बनाता है, जो इस
पेशे में है- यानि वकील, जो वहाँ खड़े होते हैं। वैसे भी, यदि लगातार ऐसा महसूस
किया जा रहा है कि यह प्रक्रिया पेचीदी है, तो संसद इसमें संशोधन कर सरल बना दे।
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लॉ कमीशन की सिफारिशों को सरकार कूड़ेदान में फेंक
देती है। लागू करने का सवाल कहाँ है? इन सिफारिशों को लागू करने में पैसा लगना है,
तो पैसा कौन दे? सरकार के लिए तो न्यायालय अहमियत की चीज ही नहीं है। लोकतंत्र में
न्यायालय को रखना है, इसलिए है। बाकी इन लोगों की इच्छा तो है ही नहीं कि न्यायालय
हो, या फिर, सक्रिय रहे। यहाँ बेईमान, भ्रष्टाचारी और अनैतिक काम करने वाले हैं, उन
सबको क्या न्यायालय का सक्रिय होना ठीक लगेगा?
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न्याय प्रक्रिया में सुधार के लिए एक साल में एक
हजार करोड़ रुपये भी नहीं दिये सकते। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ इस काम
के लिए न तो कोई राज्य सरकार इच्छुक है, न ही केन्द्र सरकार। सभी कहते हैं कि भई,
पैसे नहीं हैं। वे टेलीविजन बाँटेंगे, मोबाइल फोन देंगे, पर समाज के लिए जो
बुनियादी जरुरत की चीज है, उसके लिए कुछ नहीं करेंगे।
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(साभार उद्धृत अंश: समाचार-विचार
पाक्षिक "प्रथम प्रवक्ता", नोएडा, उप्र,
अंक- 1-15 फरवरी 2013, आलेख- 'कानून का भय खत्म हो गया है: वी.एन. खरे', पूर्व-न्यायाधीश
विशेश्वर नाथ खरे से बातचीत- मीतू कुमारी)
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