कविगुरू
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्मदिन ईस्वी सम्वत् के हिसाब से 7 मई को और बँगला सम्वत्
के हिसाब से 25 बैशाख को मनाया जाता है। परसों 7 मई था और आज "25शे बैशाख" (बंगाब्द
1420) है। इस अवसर मैं कविगुरू को सादर नमन करता हूँ और "गीतांजली" से 2
कवितायें उद्धृत करता हूँ। ये अनुवाद सत्यकाम विद्यालंकार द्वारा किये गये हैं और
यह संग्रह 'राजपाल' वालों द्वारा प्रकाशित है। अनुवाद में मैंने अपनी तरफ से दो-एक मामूली
बदलाव भी किये हैं।
देवालय
(भजन, पूजन, साधन, आराधना)
---------------------------------
पुजारी! भजन, पूजन, साधन, आराधना, इन सबको
किनारे रख दे।
द्वार बन्द करके देवालय के कोने में बैठा
है?
अपने मन के अन्धकार में छिपा बैठा, तू
कौन-सी पूजा में मग्न है?
आँखें खोलकर जरा देख तो सही, तेरा देवता
तेरे देवालय में नहीं है!
जहाँ कठोर जमीन को नरम करके किसान खेती कर
रहे हैं,
जहाँ मजदूर पत्थर तोड़कर रास्ता तैयार कर
रहे हैं,
तेरा देवता वहीं चला गया है!
वे धूप-बरसात में सदा एक-समान तपते-झुलसते
हैं,
उनके दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं,
उनके पास जाना है तो सुन्दर परिधान त्याग
कर मिट्टी-भरे रास्ते से जा!
तेरा देवता देवालय में नहीं है,
भजन, पूजन, साधन को किनारे रख दे!
***
कृपण
-----
मैं उस समय गाँव के द्वार-द्वार पर
भिक्षा माँग रहा था
जब तेरा स्वर्ण रथ दूरी पर दिखायी
दिया,
मैंने मानो कोई सुन्दर सपना-सा देखा
हो।
मेरे विस्मय की सीमा न थी कि यह
राजाओं का राजा कौन है, जो इधर आ रहा है?
मेरी आशाओं ने सिर उठाया, सोचा, शायद
मेरे दुर्भाग्य की घड़ियाँ समाप्त हो गयीं।
मैं वहीं खड़ा हो गया और सोचने लगा-
कब रथ की धूल में स्वर्ण-मुहरें
गिरेंगी और राजा के हाथ भिखारियों की झोलियाँ भरने को उठेंगे!
वह रथ अचानक वहीं ठहरा, जहाँ मैं खड़ा
था।
तेरे नेत्र मुझसे मिले, तू
मुस्कुराता हुआ रथ से नीचे उतरा।
मैंने सोचा, मेरा भाग्य-सूर्य अब उदय
होने ही वाला है।
तब अचानक तूने मेरे पास आकर अपना
दक्षिण हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया
और कहा- 'मुझे देने को तू जो लाया
है, दे दे।'
कितना विचित्र उपहास था।
एक राजा ने भिखारी के सामने भिक्षा
के लिए हाथ फैलाया था।
मैं कुछ देर विस्मय-मुग्ध खड़ा देखता
रहा।
फिर अपनी झोली से चावल की सबसे छोटी
कनी निकालकर तेरे हाथ में रख दी।
किंतु मेरे आश्चर्य की सीमा न रही
जब दिन ढलने पर मैंने अपनी झोली खाली
की
और देखा कि मेरी झोली में पड़े चावल
की कनियों में से एक कनी सोने की भी थी!
मैं रोने लगा, बहुत रोने लगा।
जो कुछ मेरी झोली में था,
वह सब तुझे क्यों न दे डाला!
***
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्रश्न उठता है कि हमारा राष्ट्रगान "जन-गण-मन" क्या वाकई जॉर्ज पंचम का "प्रशस्ती गीत" है?
अगर हाँ, तो इसके प्रति या इसके रचयिता रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति हमारे मन में श्रद्धा क्योंकर उत्पन्न हो?
इन प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मेरे मन में आया, उसे मैंने अपने ब्लॉग 'देश-दुनिया' में यहाँ लिखा है:-
अगर हाँ, तो इसके प्रति या इसके रचयिता रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति हमारे मन में श्रद्धा क्योंकर उत्पन्न हो?
इन प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मेरे मन में आया, उसे मैंने अपने ब्लॉग 'देश-दुनिया' में यहाँ लिखा है:-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें