मैं अक्सर
सोचता था कि आखिर मैं अपनी "खुशहाली" वाली अवधारणा को कैसे प्रकट करूँ
कि यह "विकास" से अलग लगे। इस पर विचार करने के लिए मुझे थोड़ा लम्बा समय
चाहिए था और मैं अब तक टाल रहा था।
भला हो
अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला महोदय का, जिन्होंने एक लेख "सुख चाहिए या भोग"
लिखकर मुझे ज्यादा विचार करने से बचा लिया।
लेख थोड़ा
जटिल लग सकता है, मगर पढ़ा जा
सकता है।
विकास "खपत" या "उपभोग" पर
आधारित है, जबकि
खुशहाली में व्यक्ति के भौतिक विकास के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी
ध्यान रखा जायेगा।
भूटान ने बिल्कुल इसी रास्ते को चुना है- वहाँ
जी.डी.पी. से नहीं, बल्कि
जी.एन.एच. (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) से देश की तरक्की को मापा जाता है। संयुक्त
राष्ट्र संघ ने भी भूटान की इस अवधारणा को स्वीकार कर लिया है और इसी साल से
प्रतिवर्ष 20 मार्च को "खुशहाली दिवस" मनाने का फैसला लिया है।
डॉ. झुनझुनवला के लेख को मैं यहाँ उद्धृत करता
हूँ, जबकि GNH के बारे में ज्यादा जानने के लिए दो लिंक दे रहा
हूँ:
http://www.grossnationalhappiness.com/articles/
http://en.wikipedia.org/wiki/Gross_national_happiness
http://en.wikipedia.org/wiki/Gross_national_happiness
सुख चाहिए या भोग
डॉ. भरत झुनझुनवाला
प्रश्न अटपटा लगता है. भूखे को भोजन मिल जाये; बच्चे को
क्रिकेट बैट मिल जाये अथवा गृहिणी को मिक्सर मिल जाये तो खपत में वृद्घि होती है
और व्यक्ति को सुख मिलता है. यह सामान्य स्थिति है. दूसरी परिस्थितियों में यह
संबंध नहीं दिखता है. जैसे जैन मुनि भोजन छोड. कर प्राण त्याग देते हैं और इसी में
सुख महसूस करते हैं. इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि खपत और सुख का संबंध सीधा
नहीं है. खपत और सुख का समन्वय बुद्घि और मन के माध्यम से होता है. खपत को बुद्घि
मानिए और सुख को मन मानिए. यदि मन में केला खाने की इच्छा हो और केला मिल जाये तो
व्यक्ति सुखी होता है. इसके विपरीत यदि मन में मिठाई खाने की इच्छा हो और सामने
केला रख दिया जाये तो खपत बढ.ती है, परंतु सुख नहीं मिलता. निष्कर्ष यह है कि मन के अनुकूल खपत ही
सुखदायी होता है.
खपत और सुख के इस संबंध को हमारे संविधान में स्वीकार किया गया
है. अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार है. यहां जीवन
का अर्थ खपत से है, जैसे पानी, भोजन, मकान आदि से. अनुच्छेद 21
के कार्यान्वयन के लिए आर्थिक विकास जरूरी है.
इसके विपरीत अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की
स्वतंत्रता है. यहां धर्म को मन से जोड. कर देखना चाहिए. धर्मों का सार मनुष्य के
अंतर्मन से जुड़ा दिखता है. कहा जाता है कि भगवान मन में बसते हैं. अनुच्छेद 25 के
कार्यान्वयन के लिए आर्थिक विकास को त्यागना पड. सकता है. जैसे धर्म कहे कि
व्यक्ति शांति से पूजा करे, तो मंदिर-मसजिद के बाहर बज रहे लाउडस्पीकर को बंद करना होगा.
इससे दुकानदार की बिक्री कम होगी. अथवा व्यक्ति कहे कि उसे गंगाजी में आचमन करना
है, इसलिए
गंगाजी को प्रदूषित न किया जाये. ऐसे में कंपनियों को प्रदूषण प्लांट लगाना होगा, उत्पादन
लागत बढे.गी और आर्थिक विकास मंद पडे.गा.
धर्म और विकास का यह द्वंद्व उत्तराखंड विभीषिका में भी दिखता
है. 2009 में मंदिर के पुजारियों और परियोजना के अधिकारियों के बीच दो
बार वार्ता हुई. दोनों बार देवी ने किसी व्यक्ति में अवतरित होकर कहा कि वह अपना
स्थान नहीं छोड.ना चाहती है. बीते 15 जून को भी देवी ने स्पष्ट रूप से कहा कि मुझे जबरन उठाओगे तो
मैं विडाल लाऊंगी. पुजारियों ने तीन कन्याओं को लाकर मूर्ति को जबरन उठाया. 16 जून को आयी
विभीषिका इस मूर्ति को उठाने से जुड़ी है या नहीं इस पर विवाद है. पुरी के
शंकराचार्य मानते हैं कि मूर्ति को उठाने से विभीषिका आयी. इसके विपरीत सरकारी
अधिकारी इसे अंधविश्वास मानते हैं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने ‘सुरक्षा
सिद्धांत’ अथवा
‘प्रीकॉशनरी
प्रिंसिपल’ की
व्याख्या की है. कहा है कि जहां खतरे की संभावना हो, उस कार्य को नहीं करना चाहिए.
अत: प्रमाणित न हो तो भी मूर्ति को नहीं उठाना था, चूंकि खतरे की संभावना थी.
जल विद्युत परियोजना से बिजली का उत्पादन होगा, नागरिकों
की खपत बढे.गी, जो कि अनुच्छेद 21
के तहत सरकार का दायित्व है.
इसके विपरीत मूर्ति को अपने स्थान पर बनाये रखने से लोगों का धर्म के अनुसार पूजा
करने का अधिकार रक्षित होता है, जैसा कि अनुच्छेद 25
में कहा गया है. इस प्रकार खपत एवं मन, अथवा अनुच्छेद 21
एवं 25
के बीच प्राथमिकता का सवाल उठता है. मेरी समझ में
अनुच्छेद 25 का स्तर ऊंचा है, क्योंकि संविधान में किसी को इससे वंचित करने की व्यवस्था नहीं
है, जबकि
अनुच्छेद 21 के अंतर्गत नागरिक के राइट टू लाइफ को कानूनी प्रक्रिया के
अनुसार वंचित किया जा सकता है. जैसे किसान बोले कि मेरी खेती की हानि होगी इसलिए
विद्युत परियोजना न बनायी जाये, तो सरकार उसे जबरन हटा सकती है, चूंकि बड़ी संख्या में लोगों
की खपत बढ़ाने में एक व्यक्ति आडे. आ रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल में दिये वेदांता निर्णय में अनुच्छेद 25 को प्राथमिक ठहराया है. ओड़िशा में वेदांता कंपनी द्वारा
नियमगिरि पर्वत पर खनन करने का प्रस्ताव था. स्थानीय लोग इस पर्वत की पूजा नियम
राजा के नाम से करते हैं. कोर्ट ने कहा कि आर्थिक समृद्घि अथवा खपत में वृद्घि के
लिए लोगों के धर्म पालन के अधिकार को नहीं छीना जा सकता.
इस सिद्घांत के तहत बिजली बनाने के लिए धारी देवी को नहीं उठाना
चाहिए. मूल समस्या यह है कि सरकार और न्यायालयों ने खपत को ही गॉड मान लिया है.
श्री अरविंद, विवेकानंद एवं इकबाल ने कहा है कि इस देश की पहचान आध्यात्मिक
कृत्यों अथवा मन के फैलाव से है, न कि खपत के फैलाव से. मनीषियों के इस दृष्टिकोण को नजरंदाज
करेंगे, तो ऐसी विभीषिकाएं बारंबार आयेंगी.
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