कल
के 'प्रभात खबर' में जे.एन.यू. के प्रोफेसर अरूण कुमार का विस्तृत साक्षात्कार
प्रकाशित हुआ है। उनके कई विचार बिलकुल वही हैं, जिनका जिक्र मैं गाहे-बगाहे अपने
ब्लॉग 'देश-दुनिया' में करता रहता हूँ।
एक
बात मैं कई बार मैं कह चुका हूँ कि बुद्धीजीवियों की एक "सीमा" होती है-
वे देश के भयावह वर्तमान एवं भविष्य की तस्वीर खींचकर "जरुरत इस बात है
कि-", या "हमें चाहिए कि-", या फिर, "कहीं देर न जाय-"
जैसे जुमलों से अपनी बात समाप्त कर देते हैं। अँग्रेजी में जिसे "टू द
प्वाइण्ट" कहते हैं, वैसा समाधान वे कभी नहीं सुझाते। दूसरी बात, अखबार में
लेख लिखना या पुस्तकें लिखना बहुत-से बुद्धिजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ एक
"पेशा" है- कुछ "कर गुजरने" की चाहत उनमें नहीं होती। उल्टे
कोई और कोशिश करे, तो उसे हतोत्साहित भी वे जरूर करेंगे।
मैंने
देश की सभी समस्याओं का प्रायः पन्द्रह वर्षों तक अध्ययन किया, मगर उनकी
"भयावहता" का एक रत्ती भी जिक्र न करते हुए सीधे उनका टू द प्वाइण्ट "समाधान"
सुझा दिया (ब्लॉग "खुशहाल भारत" में)। पता नहीं, इसकी शैली
"दुरूह" और "क्लिष्ट" हो गयी, या क्या हुआ- किसी भी
"बुद्धीजीवि" ने इसपर नजर नहीं डाली है- जबकि सम्पर्क मैं सबसे करने की
कोशिश करता हूँ।
अब
प्रो. अरूण कुमार साहब का ईमेल पता तो अखबार में नहीं है, मगर सम्पादक के माध्यम
से उनतक मैं अपनी बात पहुँचाऊँगा, मगर देख लीजियेगा- कोई उत्तर नहीं आयेगा। पता
नहीं, भारतीय बुद्धीजीवि किसी आम आदमी को जवाब देने में अपनी बे-इज्जती क्यों
समझते हैं?
खैर,
यह ब्लॉग मेरी "चयनिका" है, जहाँ मैं अपनी बात नहीं के बराबर कहता हूँ
और सीधे दूसरों की बात साभार उद्धृत कर देता हूँ। आज पता नहीं क्यों अपनी इतनी बात
लिख गया।
प्रस्तुत है
जे.एन.यू. के प्रो. अरूण कुमार के विचार:
***
नेतृत्व पर-
"किसी भी देश के विकास में नेतृत्व का अहम योगदान होता है, क्योंकि
इसका असर सभी संस्थाओं पर पड.ता है. नेतृत्व की कमजोरी का असर हर ओर दिखायी देता
है. भारतीय नेतृत्व की कमजोरी की जड़ें औपनिवेशिक काल से जुड़ी हुई हैं और यही वजह
है कि आजादी के बाद इसकी गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आयी. लॉर्ड मैकाले की
नीति अपना कर ब्रिटिश शासकों ने अपने और आम लोगों के बीच एक संभ्रांत वर्ग तैयार
किया. इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की और फिर आजाद भारत का शासक वर्ग
बना. उस समय कांग्रेस में कई दिग्गज नेता थे, लेकिन विकास की उनकी सोच पश्चिमी मॉडल पर ही आधारित थी. इसलिए
कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण समस्याएं गंभीर होती चली गयी.
"नेतृत्व आखिर कैसे भटका, यह बड़ा
सवाल है. ऐसा इसलिए हुआ कि वे बुनियादी समझ विकसित नहीं कर पाये. बुनियादी समस्या
के कारण समाज का ढांचा टूटा. किसी भी समस्या का ऐतिहासिक पहलू होता है. यही कारण
है कि टॉल्सटाय ने कहा था कि केवल 20
हजार लोग 20 करोड. लोगों पर आखिर कैसे हावी हो गये. अंगरेजों ने कोई लड़ाई
नहीं लड़ी. उन्होंने भारतीयों की हर कमजोरी को और बढ़ा दिया. आजादी के 65 साल बाद यह कमजोरी बढ़ी ही है. यही वजह है कि न्यायपालिका सहित
सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर असर पड़ा है.
"समस्या यह है कि आज का संभ्रात वर्ग समझता है कि वह बहुत
अच्छा कर रहा है. बुनियादी समस्याओं की ओर उसका ध्यान नहीं जाता है. किसी भी काम
के लिए पहले उसकी समझ होना जरूरी है. जब समझ और दर्द हो तभी काम किया जा सकता
है. भारतीय नेतृत्व के पास यही बुनियादी कमजोरी है."
आर्थिक नीतियों पर-
"गांधी जी का मानना था कि आर्थिक नीति के केंद्र में सबसे
निचला व्यक्ति होना चाहिए. लेकिन 1991
से पहले और उसके बाद भी
आर्थिक नीतियों में आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को हल करने पर ज्यादा ध्यान नहीं
दिया गया. 1950 से ही आर्थिक नीतियों का मुख्य मकसद निवेश बढ़ाना रहा है, न कि रोजगार. होना यह चाहिए था कि हम रोजगार और पर्यावरण
संरक्षण पर ध्यान देते. प्रदूषण से
आम आदमी प्रभावित होता है. कई जगहों पर पीने का पानी प्रदूषित हो गया है.
"विकास ऐसा होना चाहिए जिसमें हर व्यक्ति को उसका लाभ
मिले, पर्यावरण संरक्षण हो और रोजगार के अवसर बढ़े. देश का हर व्यक्ति कैसे उत्पादक हो, इस
पर ध्यान देने की जरूरत है. सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी
सुविधा समान रूप से उपलब्ध हो, तभी समाज में बराबरी आयेगी. मौजूदा शिक्षा इतनी महंगी हो गयी
है कि लोगों को बराबरी का मौका ही नहीं मिल पा रहा. गांधी जी ने कहा था कि आम
लोगों की जरूरत के लिए संसाधन पर्याप्त हैं, लेकिन उनके लालच के लिए नहीं.
मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है. लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन
हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों
पर इसका प्रतिकूल असर पड.ता हो. ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल
की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो. भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है. क्यूबा जैसे छोटे देश में स्वास्थ्य
सुविधा काफी अच्छी है. भारत, चीन, ब्राजील जैसे बडे. देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक
आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है. भारत
में इतने संसाधन हैं कि यहां सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है. इससे वैश्वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग
नहीं पडे.गा. आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं. देश में पब्लिक ट्रांसपोर्स
सिस्टम पर्याप्त नहीं है. लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल
करने लगें तो पेट्रो पदार्थकी खपत दस गुनी कम हो जायेगी.
पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और सांसदों की विलासित बढ.ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढे. हैं. अरबपति सांसदों की संख्या बढ. रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड. रुपये के चंदे मिल रहे हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?
पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और सांसदों की विलासित बढ.ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढे. हैं. अरबपति सांसदों की संख्या बढ. रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड. रुपये के चंदे मिल रहे हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?
"इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने की जरूरत है. दक्षिण
अफ्रीका और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में बुनियादी अंतर रहा है. भारत के राष्ट्रीय
आंदोलन की अगुवाई संभ्रात वर्ग के हाथों में रही, जबकि
दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रीय आंदोलन आम लोगों के बीच से निकला. नेल्सन मंडेला और
काले लोगों ने इसमें बराबर की भागीदारी निभायी. ऐसे में वहां की लोकतांत्रिक
व्यवस्था में लोगों की भागीदारी अधिक है, जबकि भारतीय लोकतांत्रिक
व्यवस्था केंद्रीकृत कर दी गयी. भारत में राजनेता अपने आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को पब्लिक
सर्वेंट मानते हैं. भारत में
लोगों को सार्वजनिक सुविधाएं नहीं मिल रही हैं. जनता परेशान है. शासक वर्ग अपने
हितों को पूरा करने पर ध्यान दे रहा है. जब शासक वर्ग पर देश हित के बजाय खुद का
हित हावी होने लगे तो व्यवस्था में खामियां आती ही हैं. इससे भ्रष्टाचार बढ.ने
लगा. नेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों के बीच सांठगांठ बन गयी. इससे ‘क्रोनी
कैपिटलिज्म’ ने जन्म लिया. इस क्रोनी कैपिटलिज्म से कालेधन की अर्थव्यवस्था
का विस्तार हुआ. संसाधनों की खुली लूट होने लगी. पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के
हाथों में सिमट गयी. देश में संभ्रांत वर्ग केंद्रित नीति अपनायी गयी. इससे
संसद में करोड.पति सांसद आने लगे. राजनीतिक पार्टियां अमीरों का संगठन बन कर रह
गयीं. लेकिन लोगों के पास इसका विकल्प नहीं है. पिछले कुछ दशकों से सभी
प्रधानमंत्रियों के करीबियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. प्रधानमंत्री भले
ईमानदार रहे हों, लेकिन उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था को चलने दिया. इसमें नेतृत्व की
कमजोरी साफ तौर पर दिख रही है. भ्रष्टाचार के कारण पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था
कमजोर हुई है. भ्रष्टाचार के कारण ही लोकतांत्रिक प्रणाली महंगी भी हुई है. नेताओं
में विलासिता बढ.ती जा रही है. सुरक्षा घेरे में रहना ‘स्टेटस
सिंबल’ बन गया है. कालेधन के कारण चुनाव प्रणाली महंगी हो गयी है. यही
कारण है कि अरबपति सांसदों और विधायकों की संख्या लगातार बढ. रही है. असल में
विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है. यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र है. इसी
धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है. सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों
की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं.
दरअसल आजादी के बाद संस्थाओं को विकसित करने की जरूरत थी, लेकिन
इन्हें राजनीतिक हित साधने का औजार बना दिया गया. राजनीति पर परिवारवाद हावी होता
चला गया. इससे पूरी व्यवस्था भ्रष्ट बन गयी. इस व्यवस्था से देश का भला नहीं हो
सकता है. मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है.
कालेधन पर-
"कालाधन को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है, लेकिन
एक अनुमान के मुताबिक भारतीयों के पास दो से ढाई ट्रिलियन डॉलर कालाधन है. यह
नेताओं, नौकरशाहों और पूंजीपतियों का है. 1991 में जब ब्रिटेन में बीसीसीआइ बैंक दिवालिया हो गया था, तो
इसमें कई भारतीयों का भी पैसा डूब गया था.
"भारत में 70
के दशक से कालेधन के प्रवाह
में तेजी आयी है. कालेधन का मतलब है कि आपकी अर्थव्यवस्था से पैसा बाहर जा रहा है.
इससे बाजार में पूंजी की कमी हो जाती है. पूंजी की कमी से विकास प्रभावित होता है.
नीतियां असफल होती हैं. मौद्रिक नीति असफल होती है. महंगाई बढ.ती है. शिक्षा, स्वास्थ्य
के विकास पर प्रतिकूल असर पड.ता है. सामाजिक कल्याण की योजनाएं प्रभावित होती हैं.
कालाधन बढ.ने के कारण ही भारत की विकास दर पांच फीसदी से नीचे पहुंच गयी है. अगर
कालाधन नहीं होता तो आज भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश
होता. यहां के लोगों की सालाना आय 11 हजार डॉलर
के आसपास होती और अर्थव्यवस्था 11
ट्रिलियन डॉलर की होती. अगर कालाधन नहीं होता तो देशमें लाखों स्कूल, हॉस्पीटल
और अन्य ढांचागत सुविधाओं का बडे. पैमाने पर विकास हुआ होता. लेकिन आज कालेधन
की अर्थव्यवस्था जीडीपी का 50
फीसदी हो गयी है. कालेधन का प्रभाव आम लोगों के जीवन पर सीधे तौर पर पड.ता है. अन्य
देशों ने इससे निबटने की पहल की है, लेकिन भारत सरकार इस
दिशा में कोई भी कदम उठाने से हिचकिचाती रही है.
उपाय-?
"मौजूदा आर्थिक संकट की बड़ी वजह कालाधन ही है. भ्रष्टाचार
और घोटालों के उजागर होने से निवेश कम होने लगा है. घोटालों से लोगों में उपजे
गुस्से के कारण नौकरशाह और राजनेता नीतिगत निर्णय लेने में डरने लगे, जिससे
नीतिगत स्तर पर ठहराव आ गया. देश का निजी क्षेत्र भ्रष्ट हो गया है. वह जानता है
कि नेताओं से कैसे काम कराया जाता है. अभी क्रोनी कैपिटलिज्म के आधार पर निवेश हो
रहा था. सांठगांठ कर सभी कमा रहे थे. वह मॉडल अब टूट गया है. लेकिन इसके बदले
सरकार के पास निवेश का कोई नया मॉडल नहीं है. इससे अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है. वैश्वीकरण
की प्रक्रिया नयी नहीं, सदियों पुरानी है. पर पुरानी व्यवस्था में निवेश दोतरफा होता था, नयी व्यवस्था में एकतरफा निवेश हो रहा है. अब सारे विचार बाहर से आने लगे हैं, हमने
अपना कुछ भी विकसित नहीं किया. आज सफल छात्र होने का मतलब विदेश में शिक्षा हासिल
करना हो गया है. इसी कारण सभी विकासशील देशों की हालत खराब हो गयी है. एकतरफा वैश्वीकरण
से उन्हें काफी नुकसान हुआ है.
"सभी दौर के विकास के मॉडल अलग-अलग होते हैं. 1991 के बाद का मॉडल बाजार केंद्रित है. आज बाजार सबकुछ में प्रवेश
कर गया है. सबकुछमें बाजार की सोच हावी हो गयी है. बाजार की सोच हावी होने से
राष्ट्रीय नीति कमजोर होती चली गयी है. मौजूदा आर्थिक संकट की प्रमुख वजह यही है. किसी
देश की नीति दूसरे देश में भी सफल नहीं हो सकती, क्योंकि सबके भौगोलिक हालात और समस्याएं अलग-अलग होती है. इसलिए
मौजूदा आर्थिक हालात से पार पाने के लिए भारत को अपने हितों वाली नीतियों को लागू
करना होगा.
*****
दैनिक "प्रभात खबर", 3 अगस्त 2013 से साभार
उद्धृत. ईपेपर का लिंक- http://epaper.prabhatkhabar.com/newsview.aspx?eddate=8%2F3%2F2013+12%3A00%3A00+AM&pageno=9&edition=9&prntid=62208&bxid=142943464&pgno=9
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