मैंने
बहुत बार महसूस किया है कि 'प्रभात खबर' के सम्पादक हरिवंश जी से मेरे विचार मेल
खाते हैं। उनके कई
लेखों को मैंने अपने ब्लॉग 'मेरी चयनिका' में उद्धृत भी किया है।
कई
बार डॉ.
भरत झुनझुनवाला के विचारों से; एकबार वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द
सिन्हा के विचारों से; एकबार लॉर्ड मेघनाद देसाई
के विचारों से; फिर एकबार डॉ. अरूण
कुमार के विचारों से भी मैंने अपने विचारों को मेल खाते हुए देखा।
***
डॉ.
सुभाष कश्यप जी के बारे में मैं सोचता था कि वे चूँकि "संविधानविद" हैं
(और मैं कहाँ संविधान विरोधी) इसलिए उनसे कभी मेरे विचार मेल नहीं खायेंगे। मगर
आश्चर्य, आज दामिनी के नाबालिग दरिन्दे की सजा पर उनके विचारों को पढ़कर लगा- ये तो
वही
बातें हैं, जिन्हें मैंने इस साल जनवरी में ही लिख दिया था।
मसलन
मेरे शब्द थे- "अगर
वहाँ का सर्वोच्च न्यायालय चाहता, तो ऐसा निर्देश दे सकता
था कि चूँकि यह एक अ-साधारण मामला है, अतः इसकी सुनवाई के
दौरान "बालिग-नाबालिग" का मुद्दा नहीं उठाया जायेगा। अगर कोई आरोपित
नाबालिग है भी, तो अपराध की जघन्यता एवं वीभत्सता को देखते हुए उसे
किशोर-न्यायालय में नहीं भेजा जायेगा, बल्कि सभी आरोपितों पर
सामान्य अदालत में ही मुकदमा चलेगा। ..मगर वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा कोई
निर्देश नहीं जारी किया।"
और डॉ. कश्यप के शब्द देखिये-
"किसी अपराध को लेकर एक नाबालिग अपराधी के लिए कानून में
अधिकतम तीन साल कैद की सजा का प्रावधान है. इसी कानून के तहत बाल न्यायालय ने
पिछले साल 16 दिसंबर को हुए दिल्ली गैंग रेप के नाबालिग आरोपी को सजा सुनायी
है. गैंगरेप और हत्या के मामले में दोषी करार देते हुए बाल न्यायालय ने नाबालिग को
तीन साल कैद की सजा सुनायी है. इसके तहत नाबालिग को बाल सुधार गृह में भेजा जायेगा, जहां
वह दो साल चार महीने तक रहेगा, क्योंकि वह पहले ही आठ महीने जेल में बिता चुका है, जिसे
अदालत ने आठ महीने की सजा मान लिया है. बाल न्यायालय द्वारा सुनायी गयी इस सजा पर
अंगुली उठाने या ऐतराज करने की कोई वजह नहीं बनती है. हर कानून में जो प्रावधान
होते हैं, उन्हीं के आधार पर फैसले दिये जाते हैं. लेकिन हां, इस
ऐतराज की जगह अगर जुवेनाइल एक्ट में संशोधन की मांग की जाती, तो
शायद अच्छा होता. दरिंदगी और जघन्यता से भरे अपराध के लिए भले ही हम फांसी या कड़ी
से कड़ी सजा की मांग करें, लेकिन अदालत उस अपराध और आरोपी की उम्र और हालात से जुड़े
कानूनी प्रावधानों के तहत ही अपना फैसला सुनाती है. इसलिए सजा की मांग के साथ ही
अगर कानून में कुछ संशोधन की मांग की जाये, तो भविष्य में होने वाले ऐसे
अपराधों के लिए आरोपितों को उचित सजा मिल सकेगी. ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि
जुवेनाइल एक्ट में एक बाल अपराधी के सुधार के अलावा कोई ऐसा प्रावधान नहीं है, जिसके
तहत उसे कोई अन्य सजा दी जा सके.
"यह तो रही अदालत द्वारा सुनायी गयी सजा की बात. लेकिन इस
मामले और फैसले पर मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि एक जुवेनाइल (नाबालिग) द्वारा रेप
और हत्या को अंजाम दिये जानवाले ऐसे संगीन मामलों में सबसे पहले आरोपित को
जुवेनाइल की श्रेणी से बाहर करते हुए एडल्ट मान लेना चाहिए. इसके बाद तो खुद-ब-खुद
उस पर वे सभी धाराएं लगायी जा सकेंगी, जो एक बालिग अपराधी पर
लगती हैं. वे सभी सजाएं सुनायी जा सकेंगी, जिनका प्रावधान एक बालिग अपराधी के लिए है. ऐसे मामले में तो
अपराधी को फांसी की सजा तक का प्रावधान है. मेरा ख्याल है कि कानून को कभी-कभी
जनभावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए, नहीं तो लोगों को ऐसा
लगने लगेगा है कि सही-सही कानून का पालन नहीं हुआ. जनता के आक्रोश के मद्देनजर अगर ऐसा नहीं होता है, तो
जाहिर है कि जनता खुद कानून को अपने हाथ में लेने पर उतारू नजर आये. यही वजह है कि
जघन्य अपराधों के सिलसिले में बाल अपराधियों के लिए जुवेनाइल एक्ट में संशोधन की
जरूरत को महसूस किया जा रहा है, ताकि उचित सजा से जनता में कानून और न्याय-व्यवस्था को लेकर कोई
रोष न फैले. हालांकि कानून और अदालत के फैसले किसी भावना में बहकर नहीं लिये
जाते, बल्कि कानूनी प्रावधानों के दायरे में ही लिये जाते हैं, लेकिन यह मामला अपने आप में इतना अलग और अपवाद सरीखा लगता है कि
इसमें जनभावना का ध्यान रखा जाना चाहिए था.
"बाल अपराधियों को उनकी मनोदशा और मानसिक स्थिति अबोध होने
के कारण ही सजा के रूप में बाल सुधार गृह भेजा जाता है. लेकिन ऐसे कई आंकड़े हैं, जो
यह बताते हैं कि सजा काटने के बाद भी सुधार गृह से निकलने वाले बाल अपराधी पूरी
तरह से नहीं सुधर पाते हैं और फिर अपराध की दुनिया में धंस जाते हैं. दूसरी बात यह
है कि एकबारगी किसी की हत्या के लिए एक नाबालिग को उसकी बौद्धिक परिवक्वता कम मान
कर उसे बाल अपराधी कह सकते हैं, लेकिन बलात्कार जैसी जघन्यता करने के लिए तो उसे बाल अपराधी
नहीं कहा जा सकता. ऐसे में उसे दुनिया के किसी भी सुधार गृह में भेज दें, इसकी
गारंटी नहीं ली जा सकती कि वह वहां जाकर पूरी तरह से सुधर ही जायेगा. मिसाल के तौर
पर मान लीजिए कि एक व्यक्ति के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है. वह रोज सड़क पर
आता-जाता है और ट्रैफिक पुलिस को देख कर रास्ता बदल लेता है, लेकिन
एक दिन जब वह पकड़ा जाता है तो वह यही सोचता है कि कुछ पैसे देकर और अपनी किसी
मजबूरी का हवाला देकर वह बच जायेगा. ऐसा अकसर होता भी है. अगर यही सिलसिला चलता
रहे तो उसे ऐसा करने में कभी कोई हिचक नहीं होगी. एक दिन वह इस छोटे से अपराध का
एक्सपर्ट हो जायेगा और फिर बहुत मुमकिन है कि उसका यह छोटे-छोटे अपराध का सिलसिला
किसी बड़े अपराध को अंजाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो जाये. इसलिए जरूरी है कि
जुवेनाइल एक्ट में संशोधन हो."
(बातचीत : वसीम अकरम)
साभार:
http://epaper.prabhatkhabar.com/epapermain.aspx?pppp=10&queryed=16&eddate=9/2/2013%2012:00:00%20AM ***
इस
प्रकार जब बड़े लोगों से मेरे विचार मेल खाते हैं, तो मेरा विश्वास और गहरा होता है
कि मैं सही रास्ते पर हूँ। इस शीर्षक से भी मैंने एक पोस्ट लिखा था।
फर्क यही है कि बड़े लोग ज्यादा परिपक्व हैं इसलिए "राजनीति में बदलाव"
की बात कहकर छोड़ देते हैं और मैं कम परिपक्व हूँ इसलिए सीधे घोषणा कर देता हूँ कि
देश को 10 वर्षों की एक "जनकल्याणकारी तानाशाही" की जरुरत है।
दूसरी
बात, मैं खुद को वह विचारक नहीं समझता, जो कॉफी की प्याली में तूफान पैदा करे,
बल्कि मैं वह स्टेट्समैन समझता हूँ खुद को, जिसे अगर नागरिकों व सैनिकों का साथ
मिल जाय, तो 10 वर्षों के अन्दर इस देश को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली देश
बना सकता है!
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